SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 79
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ४० प्रतिक्रमण सूत्र । 'गुरुजणपूआ पूजनीय जनों को पूजा, 'परत्थकरणं' परोपकार का करना, 'सुहुगुरुजागो' पवित्र गुरु का सङ्ग 'च' और 'तव्वय-णसवणा' उनके वचन का पालन 'आभवं' जीवन पर्यन्त 'अखडा' अखण्डत रूप से 'होउ' हो ॥ १-२॥ भावार्थ-हे वीतराग ! हे जगद्गरो ! तेरी जय हो । संसार से वैराग्य, धर्म-मार्ग का अनुसरण, इष्ट फल की सिद्धि, लोकविरुद्ध व्यवहार का त्याग, बड़ों के प्रति बहुमान, परोपकार में प्रवृत्ति, श्रेष्ठ गुरु का समागम और उग के वचन का अखण्डित आदर-ये सब बाते हे भगवन् ! तर प्रभाव से मुझे जन्म-जन्म में मिलें ॥ १-२॥ * वारिज्जइ जज्ञव निया ण बंधगं वोयराब ! तुह समए। तहावे मम हुज्ज सेवा, भवे भवे तुम्ह चलणाणं ॥३॥ अन्वयार्थ-'वीयराय' हे वीतराग ! 'जइवि' यद्यपि 'तुह' तेरे 'समए' सिद्धान्त में 'नियाणबंधणं' निदाननियाणा करने का' 'वारिज्जइ' निषेध किया जाता है 'तहवि' तो भी 'तुम्ह' तेरे 'चलणाणं' चरणों की 'सेवा' सेवना 'मम' मुझको 'भवे भवे' जन्म-जन्म में 'हुज्ज' हो ॥३॥ * वार्यते यद्यपि निदानबन्धनं वीतराग ! तव समये । तथापि मम भवतु सेवा भवे भवे तव चरणयोः ॥ ३ ॥
SR No.010596
Book TitleDevsi Rai Pratikraman
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSukhlal
PublisherAtmanand Jain Pustak Pracharak Mandal
Publication Year1921
Total Pages298
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Paryushan
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy