SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 65
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २६ प्रतिक्रमण सूत्र । विदेह क्षेत्र में 'दुह-दुरिअखंडण' दुःख और पाप का नाश करने वाले [ तथा ] 'चिहुं' चार 'दिसिविदिसि' दिशाओं और विदिशाओं में 'तीआणागयसंपइअभूत, भावी और वर्तमान जि केवि' जो कोई 'अवर' अन्य 'तित्थयरा' तीर्थंकर हैं, 'जिण सव्वेवि' उन सब जिनेश्वरों को — वंदु ' वन्दन करता हूँ ॥३॥ भावार्थ-[ कुछ खास स्थानों में प्रतिष्ठित तीर्थंकरों की महिमा और जिन-वन्दना] । शत्रञ्जय पर्वत पर प्रतिष्ठित हे आदि नाथ विभो ! गिरिनार पर विराजमान हे नेमिनाथ भगवन् ! सत्यपुरी की शोभा बढाने वाले हे महावीर परमात्मन् !, भरुच के भूषण हे मुनिसुव्रत जिनेश्वर ! और मुहरि गाँव के मण्डन हे पार्श्वनाथ प्रभो !, आप सब की निरन्तर जय हो । महाविदेह क्षेत्र में, विशेष क्या, चारों दिशाओं में और चारों विदिशाओं में जो जिन हो चुके हैं, जो मौजूद हैं, और जो होने वाले हैं, उन सभों को मैं वन्दन करता हूँ। सभी जिन, दुःख और पाप का नाश करने वाले हैं ॥३॥ * सत्ताणवइ सहस्सा, लक्खा छप्पन्न अट्ठ कोडीओ । बत्तिसय बासिआई, तिअलोए चेइए वंदे ॥४॥ टाटोई अमनगर से जाया जाता है । ( अमदावाद-प्रान्तिज रेलवे, गुजरात)। . * सप्तनवति सहस्राणि लक्षाणि षट्पञ्चाशतमष्ट कोटीः । द्वात्रिंशतं शतानि द्वयशीतिं त्रिकलोके चैत्यानि वन्दे ॥४॥
SR No.010596
Book TitleDevsi Rai Pratikraman
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSukhlal
PublisherAtmanand Jain Pustak Pracharak Mandal
Publication Year1921
Total Pages298
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Paryushan
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy