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________________ जगचिंतामणिचैत्यवंदन। * कम्मभूमिहिं कम्मभूमिहिं पढमसंघयाण उक्कोसय सत्तरिसय जिणवराण विहरंत लब्भः नवकोडिहिं केवलीण, कोडिसहस्स नव साहु गम्मइ । संपइ जिगवर वीस, मुणि बिहुँ कोडिहिं वरनाण, समणह कोडिसहसदुअ थुणिज्जइ निच्च विहाणि ॥२॥ अन्वयार्थ—— कम्मभूमिहि कम्मभूमिहिं ' सब कर्मभृमियों में मिलकर पढमसंघयणि ' प्रथम संहनन वाले 'विहरंत' विहरमाण जिणवराण' जिनेश्वरों की ‘उक्कोसय' उत्कृष्ट [संख्या] — सत्तरिसय ' एक सौ सत्तर की १७० - लब्भइ ' पायी जाती है, [ तथा ] 'केवलीण' सामान्य केवलज्ञानियों की [ संख्या ] 'नवकोडिहिं ' नव करोड़ [और] 'साहु' साधुओं की संख्या 'नव ' नव कोडिसहस्स' हजार करोड़ 'गम्मइ ' पायी * कर्मभूमिषु कर्मभूमिषु प्रथमसंहननिनां उत्कृष्टतः सप्ततिशतं जिनवराणां विहरतां लभ्यते; नवकोट्यः केवलिनां, कोटिमहखाणि नव साधवा गम्यन्ते । सम्प्रति जिनवराः विंशतिः, मुनयो द्वे कोटी वरज्ञानिनः, श्रमणानां कोटिसहाद्वकं स्तूयते नित्यं विभाते । १-पाँच भरत, पाँच ऐरवत, और महाविदेह की १६० विजय-कुल १७० विभाग कर्मक्षेत्र के हैं; उन सब में एक एक तीर्थङ्कर होने के समय उत्कृष्ट संख्या पायी जाती है जो दुसरे श्रीअजितनाथ तीर्थकर के जमाने में थी।
SR No.010596
Book TitleDevsi Rai Pratikraman
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSukhlal
PublisherAtmanand Jain Pustak Pracharak Mandal
Publication Year1921
Total Pages298
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Paryushan
File Size16 MB
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