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________________ संथारा पोरिसी। १८९ भाज्ञा दीजिये; क्यों कि एक प्रहर परिपूर्ण बीत चुका है । इस लिये मैं रात्रि-संथारा करना चाहता हूँ ॥१॥ *. अणुजाणह संथारं, बाहुवहाणेण वामपासेणं । कुक्कुडिपायपसारण, अतरंत पमज्जए भूमि ॥२॥ संकोइअ संडासा, उव्वट्टते अ कायपडिलेहा । दव्वाईउवओगं, ऊसासनिरंभणालोए ॥३॥ भावार्थ-[संथारा करने की विधि । ] मुझ को संथारा की माज्ञा दीजिये । संथारे की आज्ञा देते हुए गुरु उस की विधि का उपदेश देते हैं। मुनि बाहु को सिराने रख कर बाँये करवट सोवे और वह मुर्गी की तरह ऊँचे पाँव रख कर सोने में असमर्थ हो तो भूमि का प्रमार्जन कर उस पर पाँव रखे । घुटनों को सिकोड कर सोवे । करवट बदलते समय शरीर को पडिलेहण करे। बागने के निमित्त द्रव्यादि से आत्मा का चिन्तन करेइतने पर * अनुजानीत संस्तारं, बाहूपधानेन वामपाधैन । कुक्कटीपादप्रसारणेऽशक्नुवन् प्रमार्जयेत् भूमिम् ॥२॥ संकोच्य संदंशावुद्वर्तमानश्च कायं प्रतिलिखेत् । द्रव्याद्यपयोगनोच्छ्वासनिरोधेन आलोकं (कुर्यात् ) ॥३॥ १-में वस्तुतः कौन और कैसा हूँ ? इस प्रश्न को सोचना द्रव्य-चिन्तन; तत्त्वतः मेरा क्षेत्र कौनसा है ? इस का विचारना क्षेत्र-चिन्तन; मैं प्रमादरूप रात्रि में सोया पड़ा हूँ या अप्रमत्तभावरूप दिन में वर्तमान हूँ ? इस का विचार करना काल-चिन्तन और मुझे इस समय लघु-शङ्का आदि द्रव्य-बाधा और राग-द्वेष आदि भाव-बाधा कितनी है, यह विचारन माव-चिन्तन है।
SR No.010596
Book TitleDevsi Rai Pratikraman
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSukhlal
PublisherAtmanand Jain Pustak Pracharak Mandal
Publication Year1921
Total Pages298
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Paryushan
File Size16 MB
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