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________________ विशाललोचन। १३३ जिस के केसर हैं, ऐसा 'वीरजिनेन्द्रस्य' श्रीमहावीर जिनेश्वर का 'मुखपद्मं मुखरूपी कमल 'प्रातः' प्रातःकाल में 'वः' तुम को 'पुनातु' पवित्र करे ॥१॥ भावार्थ-जिस में बड़ी बड़ी आँखें पत्तों की सी हैं, और चमकीली दाँतों की किरणें केसर की सी हैं, ऐसा वीर प्रभु का कमल-सदृश मुख प्रातःकाल में तुम सब को अपने दर्शन से पवित्र करे ॥१॥ येषामभिषेककर्म कृत्वा, मत्ता हर्षभरात्सुखं सुरेन्द्राः। . तृणमपि गणयन्ति नैव नाकं, प्रातः सन्तु शिवाय ते जिनेन्द्राः२ ___अन्वयार्थ—'येषां जिन के 'अभिषेककर्म' अभिषेक-कार्य को 'कृत्वा' कर के 'हर्षभरात्' हर्ष की अधिकता से 'मत्ताः' उन्मत्त हो कर 'सुरेन्द्राः' देवेन्द्र 'नाक' स्वगरूप 'सुखं' सुख को 'तृणमपि तिनके के बराबर भी 'नैव' नहीं 'गणयन्ति' गिनते हैं 'ते' वे 'जिनेन्द्राः' जिनेश्वर 'प्रातः' प्रातःकाल में 'शिवाय' कल्याण के लिये 'सन्तु' हों ॥२॥ भावार्थ--जिनेश्वरों का अभिषेक करने से इन्द्रों को इतना अधिक हर्ष होता है कि वे उस हर्ष के सामने अपने स्वर्गीय सुख को तृण-तुल्य भी नहीं गिनते हैं; ऐसे प्रभावशाली जिनेश्वर देव प्रातःकाल में कल्याणकारी हों ॥२॥ कलङ्कनिर्मुक्तममुक्तपूर्णतं, कुतर्कराहुग्रसनं सदोदयम् । अपूर्वचन्द्रं जिनचन्द्रभाषितं, दिनागमे नौमि बुधैर्नमस्कृतम्।३।
SR No.010596
Book TitleDevsi Rai Pratikraman
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSukhlal
PublisherAtmanand Jain Pustak Pracharak Mandal
Publication Year1921
Total Pages298
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Paryushan
File Size16 MB
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