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________________ १३२ प्रतिक्रमण सूत्र । रचित खिले हुए कमलों की पङ्क्ति को देख कर ही विद्वानों ने प्रचलित किया है; ऐसे जिनेश्वर सब के लिये कल्याणकारी हो ॥२॥ कषायतापार्दितजन्तुनिवृति, करोति यो जैनमुखाम्बुदोद्गतः। स शुक्रमासोद्भववृष्टिसनिभो, दधातु तुष्टिं मयि विस्तरो गिराम्३ अन्वयार्थ---'यः' जो 'गिराम्' वाणी का 'विस्तरः' विस्तार 'जैनमुखाम्बुदोद्गतः' जिनेश्वर के मुखरूप मेघ से प्रगट हो कर 'कषायतापार्दितजन्तु' कषाय के ताप से पीडित जन्तुओं को 'निर्वृति' शान्ति 'करोति' करता है [और इसी से जो] 'शुक्रमासोद्भववृष्टिसन्निभः' ज्येष्ठ मास में होने वाली वृष्टि के समान है 'सः' वह ‘मषि' मुझ पर 'तुष्टि' तुष्टि 'दधातु' धारण करे ॥३॥ भावार्थ-----भगवान् की वाणी ज्येष्ठ मास की मेघ-वर्षा के समान अतिशीतल है, अर्थात् जैसे ज्येष्ठ मास की वृष्टि ताप-पीडित लोगों को शीतलता पहुँचाती है, वैसे ही भगवान् की वाणी कषाय-पीडित प्राणियों को शान्ति-लाभ कराती है। ऐसी शान्त वाण का मुझ पर अनुग्रह हो ॥३॥ ३८-विशाललोचन। विशाललोचनदलं, प्रोद्यदन्तांशुकेसरम् । प्रातरिजिनेन्द्रस्य, मुखपद्मं पुनातु वः ॥१॥ अन्वयार्थ-'विशाललोचनदलं' विशाल नेत्र ही जिस के पत्ते हैं, 'प्रोद्यद्दन्तांशुकेसरम्' अत्यन्त प्रकाशमान दाँत की किरणें ही
SR No.010596
Book TitleDevsi Rai Pratikraman
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSukhlal
PublisherAtmanand Jain Pustak Pracharak Mandal
Publication Year1921
Total Pages298
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Paryushan
File Size16 MB
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