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________________ वंदित्त सूत्र । १२३ सब पापों का त्रिविध प्रतिक्रमण कर के चौबीस तीर्थङ्करों को वन्दन करता हूँ ॥४३॥ जावंति चेइआई, उड्ढे अ अहे अतिरिअलोए अ। सव्वाइँ ता. वंदे, इह संतो तत्थ संताई ॥४४॥ अर्थ-----पूर्ववत् । जावंत के वि साह, भरहेरवयमहाविदेहे अ। सव्वेसिंतेसिं पणओ, तिविहेण तिदंडविरयाण।।४५॥ अर्थ-पूर्ववत् । * चिरसंचियपावपणा, मणीइ भवसयसहस्समहणीए । चउवीसजिणविणिग्गय, कहाइ वोलंतु मे दिअहा ।४६। अन्वयार्थ----'चिरसंचियपावपणासीइ' बहुत काल से इकट्ठे किये हुए पापों का नाश करने वाली भवसयसहस्समहणीए' लाखों भवों को मिटाने वाली 'चउवीसाजणविणिग्गय' चौबीस जिनेश्वरों के मुख से निकली हुई 'कहाई' कथा के द्वारा 'मे' मेरे 'दिअहा' दिन 'चोलंतु' बीते ॥४६॥ भावार्थ----जो चिरकाल-सञ्चित पापों का नाश करने वाली है, जो लाखों जन्म जन्मान्तरों का अन्त करने वाली है और जो सभी तीर्थङ्करों के पवित्र मुख-कमल से निकली हुई है, ऐसी सर्व-हितकारक धर्म-कथा में ही मेरे दिन व्यतीत हो॥४६॥ * चिरसञ्चितपापप्रणाशन्या भवशतसहस्रमथन्या । चतुर्विशतिजिनविनिर्गत,-कथया गच्छन्तु मम दिवसाः ॥४६॥
SR No.010596
Book TitleDevsi Rai Pratikraman
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSukhlal
PublisherAtmanand Jain Pustak Pracharak Mandal
Publication Year1921
Total Pages298
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Paryushan
File Size16 MB
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