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________________ . १२०.. प्रतिक्रमण सूत्र । अन्वयार्थ-'जहा' जैसे 'मंतमूलविसारया' मन्त्र और जड़ी-बूटी के जानकार 'विज्जा' वैद्य 'कुट्टगयं' पेट में पहुँचे हुए 'विसं' ज़हर को मंतेहिं' मन्त्रों से ‘हणंति' उतार देते हैं 'तो' जिस से कि 'तं' वह पेट 'निव्विसं' निर्विष 'हवइ हो जाता है ॥३८॥ ____ एवं वैसे ही 'आलोअंतो' आलोचना करता हुआ 'अ' तथा 'निंदतो' निन्दा करता हुआ 'सुसावओ' सुश्रावक 'रागदाससमज्जिअं' राग और द्वेप से बँधे हुए 'अट्टविहं आठ प्रकार के 'कम्म' कर्म को 'खिप्प' शीघ्र ‘हणई' नष्ट कर डालता है ॥३९॥ __ भावार्थ--जिस प्रकार कुशल वैद्य उदर में पहुँचे हुए विष को भी मन्त्र या जड़ी-बूटी के जरिये से उतार देते हैं। इसी प्रकार सुश्रावक राग-द्वेष-जन्य सब कर्म को आलोचना तथा निन्दा द्वारा शीघ्र क्षय कर डालते हैं ॥३८॥३९॥ * कयपावो वि मणुस्सो, आलोइअनिदिअ य गुरुसगास । होइ अइरेगलदुओ, ओहरिअम व्द भारवहो ॥४०॥ अन्वयार्थ-'कयपावो वि' पाप किया हुआ भी ‘मणुस्सो' मनुष्य 'गुरुसगासे' गुरु के पास 'आलोइअा आलोचना कर के तथा 'निदिअ' निन्द्रा करके 'अइरेगलहुओ' पाप के बोझ से हलका होइ' हो जाता है 'व' जिस प्रकार कि 'ओहरिअभरु' भार के उतर जाने पर 'भारवहो' भारवाहक.—कुली ॥४०॥ * कृतपापोऽपि मनुष्यः, आलोच्य निन्दित्वा च गुरुस काशे । भवत्यतिरकलघुको,ऽपहृतभर इव भारवाहकः ॥४०॥
SR No.010596
Book TitleDevsi Rai Pratikraman
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSukhlal
PublisherAtmanand Jain Pustak Pracharak Mandal
Publication Year1921
Total Pages298
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Paryushan
File Size16 MB
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