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________________ वंदित्तु सूत्र । ११९ * तं पि हु सपडिक्कमणं, सप्परिआवं सउत्तरगुणं च। खिप्पं उवसामेई, वाहि व सुसिक्खिओ विज्जो॥३७॥ अन्वयार्थ-श्रावक] 'सपडिक्कमणं' प्रतिक्रमण द्वारा 'सप्परिआवं' पश्चात्ताप द्वारा 'च' और 'सउत्तरगुणं' प्रायश्चित्तरूप उत्तरगुण द्वारा 'तं पि' उसको अर्थात् अल्प पाप-बन्ध को भी 'खिप्पं' जल्दी 'हु' अवश्य 'उवसामई' उपशान्त करता है 'व्व' जैसे 'सुसिक्खिओ' कुशल 'विज्जो' वैद्य 'वाहि' व्याधि को ॥३७॥ भावार्थ-जिस प्रकार कुशल वैद्य व्याधि को विविध उपायों से नष्ट कर देता है। इसी प्रकार सुश्रावक सांसारिक कामों से बँधे हुए कर्म को प्रतिक्रमण, पश्चात्ताप और प्रायश्चित्त द्वारा क्षय कर देता है ।।३७॥ + जहा विसं कुट्ठगय, मंतमूलविसारया । विज्जा हणंति मंतेहिं, तो तं हवइ निविसं ॥३८॥ एवं अट्ठविहं कम्म, रागदोससमाज्जिअं । आलोअंतो अ निंदंतो, खिप्पं हणइ सुसावओ ॥३९॥ + तदपि खलु सप्रतिक्रमणं, सपरितापं सोत्तरगुणं च । क्षिप्रमुपशमयति, व्याधिमिव मुशिक्षितो वैद्यः ॥३७॥ । यथा विषं कोष्टगतं, मन्त्रमूलविशारदाः । वैद्या घ्नन्ति मन्त्रै,-स्ततस्तद्भवति निर्विषम् ॥३८॥ एवमष्टविधं कर्म, रागद्वेषसमार्जतम् । आलोचयश्च निन्दन , क्षिप्रं हन्ति सुश्रावकः ॥३९॥
SR No.010596
Book TitleDevsi Rai Pratikraman
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSukhlal
PublisherAtmanand Jain Pustak Pracharak Mandal
Publication Year1921
Total Pages298
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Paryushan
File Size16 MB
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