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________________ वंदित सूत्र । ९७ 'घण' धन 'धन्न' धान्य- अनाज 'खित्त' खेत 'वत्थू' घर दूकान आदि 'रूप्प' चाँदी 'सुवन्ने' सोना 'कुविरों' कुप्य - ताँबा आदि धातुएँ 'दुपए ' दो पैर वाले - दास, दासी, नौकर, चाकर आदि 'चउप्पयामि' गाय, भैंस आदि चौपाये [ इन सबके] 'परिमाणे ' परिमाण के विषय में 'देसिअं' दिवस सम्बन्धी लगे हुए 'सव्वं' सब दूषण से 'पडिक्कमे' निवृत्त होता हूँ ||१७|| १८॥ भावार्थ — परिग्रह का सर्वथा त्याग करना अर्थात् किसी चीज पर थोड़ी भी मूर्च्छा न रखना, यह इच्छा का पूर्ण निरोध है, जो गृहस्थ के लिये असंभव है । इस लिये गृहस्थ संग्रह की इच्छा का परिमाण कर लेता है कि मैं अमुक चीज इतने परिमाण में ही रक्खूँगा, इससे अधिक नहीं; यह पाँचवाँ अणुवृत है । इसके अतिचारों की इन दो गाथाओं में आलोचना की गई है । बे अतिचार ये हैं : (१) जितना धन - धान्य रखने का नियम किया हो उससे अधिक रखना, (२) जितने घर - खेत रखने की प्रतिज्ञा की हो उससे ज्यादा रखना, (३) जितने परिमाण में सोना चाँदी रखने का नियम किया हो उससे अधिक रख कर नियम का उल्लङ्घन करना, (४) ताँबा आदि धातुओं को तथा शयन आसन आदि को जितने परिमाण में रखने का प्रण किया हो उस से ज्यादा रखना और (५) द्विपद चतुष्पद को नियमित परिमाण से अधिक संग्रह कर के नियम का अतिक्रमण करना || १७ || १८।। १ - नियत किये हुए परिमाण का साक्षात् अतिक्रमण करना अतिचार
SR No.010596
Book TitleDevsi Rai Pratikraman
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSukhlal
PublisherAtmanand Jain Pustak Pracharak Mandal
Publication Year1921
Total Pages298
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Paryushan
File Size16 MB
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