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________________ प्रतिक्रमण सूत्र । ७८ यात्रा निर्बाध है ? (उत्तर में गुरु 'तुब्भपि वट्टइ' कह कर शिष्य से उस की संयम - यात्रा की निर्विघ्नता का प्रश्न करते हैं । शिष्य फिर गुरु से पूछता है कि ) क्या आप का शरीर सब विकारों से रहित और शक्तिशाली है ? ( उत्तर में गुरु ' एवं ' कहते हैं ) | ( अब यहां से आगे शिष्य अपने किये हुए अपराध की क्षमा माँग कर अतिचार का प्रतिक्रमण करता हुआ कहता है कि ) हे क्षमाश्रमण गुरो ! मुझ से दिन में या रात में आपका जो कुछ भी अपराध हुआ हो उस की मैं क्षमा चाहता हूँ । ( इसके बाद गुरु भी शिष्य से अपने प्रमाद - जन्य अपराध की क्षमा माँगते हैं । फिर शिष्य प्रणाम कर अवग्रह से बाहर निकल आता है; बाहर निकलता हुआ यथास्थित भाव को क्रिया द्वारा प्रकाशित करता हुआ वह 'आवस्सिआए' इत्यादि पाठ कहता है । ) आवश्यक क्रिया करने में मुझ से जो अयोग्य विधान हुआ हो उस का मैं प्रतिक्रमण करता हूँ । (सामान्यरूप से इतना कह कर फिर विशेष रूप से प्रतिक्रमण के लिये शिष्य कहता है कि ) हे क्षमाश्रमण गुरो ! आप की तेतीस में से किसी 'मी दैवसिक या रात्रिक आशतिना के द्वारा मैंने जो अतिचार सेवन किया उसका प्रतिक्रमण करता हूँ; तथा किसी मिथ्याभाव से होने वाली, द्वेषजन्य, दुर्भाषणजन्य, लोभजन्य, सर्वकाल-सम्ब १—ये आशातनाएँ आवश्यक सूत्र पृ० ७२३ और समवायाङ्ग सूत्र पृ० ५८ में वर्णित हैं ।
SR No.010596
Book TitleDevsi Rai Pratikraman
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSukhlal
PublisherAtmanand Jain Pustak Pracharak Mandal
Publication Year1921
Total Pages298
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Paryushan
File Size16 MB
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