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________________ सुगुरु-वन्दन । ७७ निन्दा करता हूँ 'गरिहामि विशेष निन्दा करता हूँ [और अब] 'अप्पाणं' आत्मा को 'वोसिरमि पाप-व्यापारों से हटा लेता हूँ। भावार्थ-हे क्षमाश्रमण गुरो ! मैं शरीर को पाप-प्रवृत्ति से अलग कर यथाशक्ति आपको वन्दन करना चाहता हूँ। (इस प्रकार शिष्य के पूछने पर यदि गुरु अस्वस्थ हों तो 'त्रिविधेन' ऐसा शब्द कहते हैं जिसका मतलब संक्षिप्त रूप से वन्दन करने की आज्ञा समझी जाती है । जब गुरु की ऐसी इच्छा मालूम दे तब तो शिष्य संक्षप ही से वन्दन कर लेता है । परन्तु यदि गुरु म्बम्थ हों तो 'छंदसा' शब्द कहते हैं जिसका मतलब इच्छानुसार वन्दन करने की संमति देना माना जाता है । तब शिप्य प्रार्थना करता है कि ) मुझ को अवग्रह में --आप के चारों ओर शरीर-प्रमाण क्षेत्र में--प्रवेश करने की आज्ञा दीजिये । ( ' अणुजाणामि' कह कर गुरु आज्ञा देवें तब शिप्य 'निसीहि' कहता है अर्थात् वह कहता है कि ) मैं 'अन्य' व्यापार को छोड़ अवग्रह में प्रवेश कर विधिपूर्वक बैठता हूँ। ( फिर वह गुरु से कहता है कि आप मुझको आज्ञा दीजिये कि मैं ) अपने मस्तक से आपके चरण का म्पर्श करूँ । म्पर्श करने में मुझ से आपको कुछ बाधा हुई उसे क्षमा कीजिये । क्या आपने अल्पग्लान अवस्था में रह कर अपना दिन बहुत कुशलपूर्वक व्यतीत किया ? ( उक्त प्रश्न का उत्तर गुरु 'तथा' कह कर देते हैं; फिर शिष्य पूछता है कि ) आप की तप-संयम
SR No.010596
Book TitleDevsi Rai Pratikraman
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSukhlal
PublisherAtmanand Jain Pustak Pracharak Mandal
Publication Year1921
Total Pages298
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Paryushan
File Size16 MB
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