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________________ ( १६ ) "सोंधे सनी सारी मांग मोतिन सबारी कुच ___कंचुकी निहारी मृगमद चित्रवारी है ।। नैन अन वारी बंक भौंह छवि भारी सुचि सुषमा के अंकवारी देह दिपति दिवारी है ।। कजकरवारी मुसकानि में उजारी, भौर झौंर भर वारी पाली अलक सटकारी है ।। राधे सुकुमारी 'ब्रजनिधि' प्रानप्यारी लखी केसर की क्यारी वृषभान की दुलारी है। ये कविता में अपना उपनाम 'बजनिधि' रखा करते थे। यह उपनाम भी इन्हें भगवान ने ही दिया था-जैसा कि- . 'अब तो जल्दी से आ दरस दीजै जो इनायत किया है 'ब्रनिधि' नाम । • (हरिपद संग्रह १६५ वाँ पद) ये भद्र जगन्नाथ जी क शिष्य थे और उन्हीं की कृपा से इन्हें भगवत्साक्षात्कार भी हुआ था. जैसा कि -- "मैं कहाँ कहा अब कृपा तुम्हारी, याहि कृपा करि गुरु मैं पाये जगनाथ उपकारी।" (हरिपद संग्रह) इन्होंने ब्रजनिधिजी का मन्दिर बनवाया और अन्त समय में रुग्णावस्था में भी ये वहीं मन्दिर के तहखाने में ( जो त्रिपोलिया से अन्दर की ओर चौक में पश्चिम की ओर है) विश्राम किया करते थे। इन्होंने तत्कालीन उत्तर भारत में प्रचलित सभी भाषाओं, खडोबाली, ब्रज, राजस्थानी एवं उद्र मिश्रित पंजाबीभाषा में रचनाएं की हैं, इससे इनकी सार्वदेशिकता पर अच्छा प्रकाश पड़ता है। ये तत्कालीन प्रसिद्ध संगीतज्ञ. 'स्वर सागर' नामक संगीतशास्त्र ग्रन्थ के प्रणेता सुधरकाश के संगीत में शिष्य थे। इन्हें कविता के सार साथ सङ्गीत एवं ललित तथा वास्तु, स्थापत्य आदि कलाओं के प्रति भी अपूर्व अनुराग था। इनके समय में ही 'श्री राधा गोविन्द संगीतसार' राधाकृष्णा कविकृत 'राग रत्नाकर' प्रभृति सगीत ग्रन्थों की रचना भी. हुई थी। इन्हें अपने दरबार में सब तरह के गुणीजनों की बाईसी संग्रह करने का विशेष शौक था। जैसे कवि बाईसी, वीर बाईसी, गंधर्व बाईसी, आदि। ये जिस प्रकार स्वयं कवि थे उसी प्रकार कवियों के आश्रयदाता एवं संरक्षक भी थे। इनके समय में राय अमृतराम पल्लीवाल, ठाकुर बवतावरसिंह 'बखतेरा' रांच शंभराम महाकवि गणपति 'भारती' रसज, रसराशि, चतुरशिरोमणि, सागर कविया, हुम्मीचन्द खीडिया, महेशदास म्हाई, हरिदास, मनभावन, महाकवि भोलानाथ, मनीराम, बंसीअली, किशोरीअली प्रभति सुकवि समुदाय इनकी सभा के शृगार थे। इनकी आज्ञा से अबुलफजल कृत 'आईने अकबरी' का जयपुरी भाषा में गुमानीराम कायस्थ ने अनुवाद किया था । बिहारी सतसई की प्रताप का टीका कवि
SR No.010595
Book TitleKarn Kutuhal
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBholanath Jain
PublisherRajasthan Puratattvanveshan Mandir
Publication Year1957
Total Pages61
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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