SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 15
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ आने का आश्वासन देते हुये जाने की ही आज्ञा मांगी। राजा ने भी अधिक हठ देखकर अनुमति प्रदान कर दी और कुमार अपनी माता से अनुमति लेकर धर्मपत्नी सहित कुछ परिजनों को साथ ले धर्मपुर नामक नगर में पहुँचा। वहां के राजा पण्यकोति को उनके आने का वृत्त ज्ञात होने पर वह उनसे मिलने आया एवं कुमार की दी हुई भेंट आदि स्वीकार करके उन्हें राजमहल में आने के लिये निमन्त्रित किया । (कुमार का अपने घर से प्रस्थान एव राजमहल तक पहुँचने का वर्णन अत्यन्त सुन्दर है ) पुण्यकीति और कुमार दोनों परस्पर मित्रता सूत्र में बंध गये तथा कुमार के कुछ दिन वहां रहने के विचार को जानकर उनकी इच्छानुसार राजा ने वृत्ति निर्धारित कर दी। कुमार की पत्नी गृहकार्य में कुशल न होने से उन्होंने उसे पृथक मकान में रखा और एक व्यक्ति द्वारा प्रतिदिन एक स्वर्णमुद्रा उसके भरणपोपणार्थ भेजते हुये स्वयं राजा की सेवा में तत्पर हो गया। इस प्रकार एक वर्ष बीतने के बाद एक बार चोरों ने कुमारपत्नी के पास पर्याप्त धन होने की सम्भावना से रात्रि में उसके घर में प्रवेश किया, किन्तु वहां क्या रखा था ? चोरों को अतीव ग्लानि हुई और सारी बात समझकर वे नगर प्रसिद्ध धनी कुबेरश्रेष्ठी के घर पहुंचे। वहां पर्याप्त धन उनके हाथ लगा। चोरों ने सोचा कि उस कुमारपत्नी को कुवेर के घर में और कुबेरकन्या को कुमारपत्नी के स्थान पर पहुँचा देना चाहिये-वैसा ही उन्होंने किया भी। प्रातःकाल कुबेरपुत्री ने अपने को कुमारगृह में देखा तो उसे अतीव आश्चर्य हुआ किन्तु वह बुद्धिमती थी-उसने सोचा, अब जो हुआ सो हुआ इस रूप में ठीक व्यवहार करना चाहिये । उसने दासी से जलादि मंगाकर भलीभांति स्नानादि करके शृगार किये और नियत समय पर स्वर्ण मुद्रा आने पर दासी से श्रोष्ठी को बुलाया तथा कहा कि वर्ष भर तक एक स्वर्णमुद्रा प्रतिदिन के हिसाब से जो स्वर्ण मुद्राएँ उन्हें मिली हैं उनमें कितना व्यय हुआ है, शेप मुद्राएँ वापस करो । इस प्रकार शेप मुद्राएँ प्राप्त कर महीने भर का अन्नादि एकत्र करके उसने स्वयं अपने हाथों भोजन बनाया और कुमार को भी भोजनार्थ निमन्त्रित किया। कुमार अपनी पूर्वपत्नी के व्यवहार से खिन्न था अतः उसने एक बार तो ना कर दिया किन्तु दासी के आग्रहपूर्वक दुबारा बुलाने से अनेक शंकाकुल-मनस्क वह गुणवतीनाम्नी नवीन पत्नी के भवन में प्रविष्ट हुआ। वहां गुणवती का रूप, शील एवं व्यवहार-कौशल तथा चातुर्य देखकर वह अत्यन्त प्रसन्न एवं विस्मित हुआ। गुणवती और कुमार परस्पर समाकृष्ट हो प्रेमसूत्र में बंध गये और उनकी जीवन-नौका संसार सिन्धु में सुख के पतवार से सानन्द सन्तरित होने लगी। एक दिन राना पुण्यकीर्ति ने रात्रि में किसी स्त्री का रुदन सुना। राजा की उत्सुकता शान्त करने हेतु कुमार' उस ध्वनि की दिशा में चला और राजा भी उसका सत्यवृत्त एवं आज्ञा-पालन-कर्तव्यता-परिज्ञान-निमित्त पीछे से पहुँचा। वह रुदन 'शिवायोगिनी का था, जिसने अगले ही दिन राजा के मत्यु होने की सूचना दी और प्रतिकार के लिये कुमार को बताया कि 'आज ही तुम्हारे जो पुत्र हुआ है, उसकी बलि देने के उपाय से राजा की मृत्यु टल सकती है।' कुमार इस उपाय को जानकर घर पहुंचा और उसने सद्योजात शिशु की बलि-हेतु अपनी पत्नी गुणवती से परामर्श किया । गुणवती वस्तुतः गुणवती थी। उसने अपने ही हाथों शिशु की बलि देने का निश्चय किया क्योंकि वह स्वामि-भक्ति
SR No.010595
Book TitleKarn Kutuhal
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBholanath Jain
PublisherRajasthan Puratattvanveshan Mandir
Publication Year1957
Total Pages61
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy