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________________ ५५ जैनसाहित्यमें आगमोंका स्थान सर्वोच्च है । आगम सिद्धान्त शास्त्र और सूत्र एक ही बात है। सूत्र की पद्धति कुछ बौद्धों में भी है जैसे सुत्तनिपात्त, पायासीसुत्तं आदि । हिंदुओं में व्याकरण और न्याय आदि ग्रंथ सूत्रबद्ध ही हैं । जैनागम तो सबके सब सूत्ररूप हैं ही । सूत्रकी व्युत्पत्ति - 'अल्पाक्षरविशिष्टत्वे सति बह्वर्थबोधकत्वं सूत्रत्वम्' अर्थात् जिसमें अक्षर थोड़े हों और अर्थबोध अधिक हो उसे सूत्र कहते हैं, अथवा 'सूत्रमिव सूत्रम्' सूत के डोरेमें जिस प्रकार अनेक रत्नोंके मणके पिरोए जाते हैं इसी तरह जिसमें बहुत से अर्थोका संग्रह हो वह सूत्र होता है । पुनश्च - अपग्गंथ महत्थं, बत्तीसा दोसविरहियं जं च । लक्खणजुत्तं सुतं, अट्ठहि य गुणेहि उववेयं ॥ १ ॥ सूत्रों के भेदोपभेद उत्सर्गसूत्र - जिसमें किसी वस्तुका सामान्य विधान हो, जैसे- 'नो कप्पइ णिग्गंथाण वा णिग्गंधीण वा आमे तालपलंबे पडिगाहित्तए ।' अपवादसूत्र - जो उत्सर्गका बाधक हो, यथा - ' कप्पर णिग्गंथाण वा णिग्गंथीण वा पक्के तालपलंबे भिण्णे अभिण्णे वा पडिगाहित्तए । ' उत्सर्गापवाद - जिसमें दोनों हों, जैसे- 'नो कप्पर णिग्गंथाण वा णिग्गंथीण वा पारियासियस्स णण्णत्थ आगाढेहिं रोगायंकेहिं' ॥ १८६ ॥ बृहत्कल्प ॥ प्रकरणसूत्र - - जिसका प्रकरणानुसार नाम हो, जैसे- 'काविलीयं' 'केसि - गोयमिजं' इत्यादि । संज्ञासूत्र - जिसमें सामान्यतया किसी विषयका वर्णन हो, जैसे 'दशवैका - 'लिक' आदि, जिनमें आचारादि का सामान्य निरूपण है । कारक सूत्र त्र - जिसमें प्रश्नोत्तर के साथ २ शंकाका समाधान भी हो । जिन प्रश्नोत्तरोंके साथ 'सेकेणणं से एएणट्टेणं' लगे हैं वे सब कारकसूत्र हैं । सूत्रके आठ गुण णिद्दोस सारवंतं च, हेउजुत्तमलंकियं । उवणीयं सोवयारं च, मियं महुरमेव य ॥ १ ॥ १ निर्दोष- सब प्रकारके दोषोंसे रहित । २ सारवान् - जिसमें सारगर्भित विषय हों । ३ हेतुयुक्त - जिसमें वर्णित विषयको हेतु आदिसे स्पष्ट किया गया हो ।
SR No.010591
Book TitleSuttagame 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchand Maharaj
PublisherSutragam Prakashan Samiti
Publication Year1954
Total Pages1300
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, agam_aupapatik, agam_rajprashniya, agam_jivajivabhigam, agam_pragyapana, agam_suryapragnapti, agam_chandrapragnapti, agam_jambudwipapragnapti, & agam_ni
File Size93 MB
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