SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 57
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ बज्झओ । अप्पाणमेव अप्पाणं, जइत्ता सुहमेहए ॥' बाहरी युद्धोंसे कुछ न होगा आंतरिक युद्ध करके आंतरिक शत्रुओंपर विजय पाओ तब ही सच्चे सुखकी प्राप्ति होगी। इसी प्रकार जैन धर्म आत्म-दमन पर ही जोर देता है'अप्पा चेव दमेयव्वो, अप्पा हु खलु दुद्दमो । अप्पा दंतो सुही होइ, अस्सि लोए परत्थ य ॥' . कर्मसिद्धान्त-जैनधर्ममें आठ कर्म माने हैं । ज्ञानावरणीय ( यह जीवके ज्ञान पर आवरणरूप है जैसे बादल सूर्यको ढंक लेता है), दर्शनावरणीय (जो जीवकी दर्शनशक्तिको ढंकता है जैसे दर्वान किसीको राजासे मिलनेमें विघ्न करता है), वेदनीय (जो सुख दुःखका अनुभव कराता है, सातावेदनीय शहदलिप्त तलवारके समान और असातावेदनीय विषलिप्त खड्गके समान है), मोहनीय (यह आत्माके स्वरूपको भुलाता है जैसे दारू पीने वाला अपना भान भूल जाता है), आयुकर्म (बंदीगृहमें बंदीके समान यह जीवको नाना गतियोंमें रोके रखता है), नामकर्म ( भिन्न २ गतियों में उत्पन्न करता है चित्रकार और चित्रके सदृश), गोत्रकर्म ( यह ऊंच और नीच अवस्थाका भेद करता है कुम्हार और उसके बर्तन की तरह ), अन्तरायकर्म (यह कर्म जीवको दान, लाभ, भोग, उपभोग और शक्तिसे वंचित रखता है)। दो प्रकारका धर्म-जैनधर्ममें धर्मके दो साधक बताए हैं, साधु और श्रावक । साधु अहिंसा, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रहका सांगोपांग पूर्णतया पालन करता है तब श्रावक इनकी मर्यादा करता है । इसके अतिरिक्त तीन गुणव्रत और चार शिक्षाव्रतोंका भी पालन करता है। - नवतत्व-जीव, अजीव, पुण्य, पाप, आस्रव ( कर्मप्रकृतिके आनेका मार्ग), संवर ( कर्मप्रकृतिको आत्मामें आनेसे रोकना), निर्जरा (बारह प्रकारके तपसे कर्मरूप रजको आत्मासे पृथक् करना), बंध (कर्मप्रकृतिका आत्मामें दूध और पानीकी तरह मिलना), मोक्ष (कर्मप्रकृतिसे तीनों उपायोंसे आत्माका मोक्ष होना) ये नव तत्त्व हैं । यदि इस संबधमें कुछ विशेष जानना हो तो जिज्ञासु 'नवपदार्थशानसार'का अवलोकन करें। जैनसाहित्य-जैनोंकी संख्या कम होते हुए भी उनका साहित्य विशालतम है। अर्धमागधी संस्कृत प्राकृत अपभ्रंश हिंदी गुजराती राजस्थानी आदि भाषाओंमें उनके अनेक ग्रंथ पाए जाते हैं, इसके अतिरिक्त व्याकरण न्याय काव्य कोष छंद ज्योतिष सामुद्रिक योग खरशास्त्र वैद्यक आदिके ग्रंथ भी पुष्कल प्रमाणमें उपलब्ध हैं।
SR No.010591
Book TitleSuttagame 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchand Maharaj
PublisherSutragam Prakashan Samiti
Publication Year1954
Total Pages1300
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, agam_aupapatik, agam_rajprashniya, agam_jivajivabhigam, agam_pragyapana, agam_suryapragnapti, agam_chandrapragnapti, agam_jambudwipapragnapti, & agam_ni
File Size93 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy