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________________ गया । स्थानींगसूत्र तथा अनुयोगद्वारमें जिसे 'इसिभासिया' कहा गया है और इसीके आधारपर हेमचंद्राचार्य आदिने इसका नाम 'आप' रक्खा अर्थात् अर्धमागधी ऋषिभाषिता और आप तीनों एक ही बात हैं । पहला नाम उत्पत्ति स्थान तथा अन्य उस भापाको सर्वप्रथम साहित्यमें स्थान दायकोंसे संबंधित है। हेमचंद्राचार्यने अपने बनाए हुए प्राकृत व्याकरणमें आपके जो लक्षण तथा उदाहरण बताए हैं उनसे और 'अत एत् सौ पुंसि मागध्यां' (हे.प्रा.४-२८७) इस सूत्रकी व्याख्यामें जो "यदपि पोराणमद्धमागहमासानिययं हवइ सुत्तं' इत्यादिना आर्षस्यार्धमागधभाषानियतत्वमानायि वृद्धस्तदपि प्रायोऽस्यैव विधानात् न वक्ष्यमाणलक्षणस्य" ऐसा कहकर उसके अनन्तर जो 'कयरे आगच्छई' ले तारिसे जिइंदिए' के उदाहरण दिए हैं उनसे उक्त बात भली भांति सिद्ध हो जाती है, डॉक्टर हर्मन जेकोबीने जैनागमोकी भाषाको प्राचीन महाराष्ट्री कहकर 'जैन महाराष्ट्री' नाम दिया है। जिसका डॉ. पिशलने अपने विख्यात प्राकृत व्याकरणमें खंडन करके सप्रमाण सिद्ध किया है कि अर्धमागधीमें वहुलतासे ऐसी अनेक विशेषताएँ हैं जो महाराष्ट्री आदि किसी प्राकृतमें ढूंढनेसे भी नहीं मिलतीं । इसलिए उपरोक्त नाम नहीं दिया जा सकता। नाटकोमें जो अर्धमागधी पाई जाती है उसमें और सूत्रोकी अर्ध. मागधीमें समानताकी अपेक्षा अत्यधिक भेद है। भरत मार्कण्डेय और क्रमदीश्वरने अर्धमागधीके भिन्न २ लक्षण बताए हैं, लेकिन वे केवल नाटकीय अर्धमागधीके लिए हैं। हेमचंद्राचार्यने अपने व्याकरणमें अर्धमागधीको 'आर्ष प्राकृत' और अर्वाचीन रूपको महाराष्ट्री माना है। इससे यह सिद्ध होता है कि महाराष्ट्रीसे अर्धमागधी बहुत प्राचीन है । अथवा यों कहिए कि अर्धमागधी ही महाराष्ट्रीका १ सकता पागता चेव, दुहा भणितीओ आहिया । सरमडलस्मि गिज्जते, पसत्था इसिभासिता । २ सक्काया पायया चेव, भणिईओ होति दोण्णि वा । सरमंडलम्मि गिज्जते, पसत्था इसिभासिआ ॥ ३ देखो हेमचंद्राचार्यका प्राकृतव्याकरण सूत्र १-३ । आर्षोंत्यमार्पतुल्यं च द्विविधं प्राकृतं विदुः । ( काव्यादर्श टीका १-३३ में प्रेमचद्र तर्कवागीशद्वारा उद्धृत पद्याश) ॥ ४ डॉ. हॉर्नलीने चड कृत प्राकृत लक्षणके इन्ट्रोडक्शन पृ. १८-१९ में हेमाचार्यके मतमें पोराण आर्ष प्राकृतका नाम लिखा परतु वह बिल्कुल गलत है, कारण यह सूत्रका विशेषण है भाषाका नही। ५ इट्रोडक्शन टु प्राकृत लक्षण ऑफ़ चंड पृ. १९ डॉ. हॉर्नली ।
SR No.010590
Book TitleSuttagame 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchand Maharaj
PublisherSutragam Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages1314
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, agam_acharang, agam_sutrakritang, agam_sthanang, agam_samvayang, agam_bhagwati, agam_gyatadharmkatha, agam_upasakdasha, agam_antkrutdasha, & agam_anutta
File Size89 MB
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