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________________ श्रेणिक बिम्बसार मुनिराज के मुख से इन शब्दो को सुनकर राजा पर बडा भारी प्रभाव पड़ा। वह मन ही मन इस प्रकार विचार करने लगे "अोहो । यह मुनिराज तो वास्तव मे बडे भारी महात्मा है। इनके लिये शत्रु और मित्र वास्तव मे समान है । इनके गले मे सर्प डालने वाला मै तथा उनकी परम भक्त रानी दोनो पर ही इनकी एक सी कृपा है। यह मुनि धन्य है, जो गले मे सर्प पडने के अनेक कष्ट सहन करते हुए भी इन्होने उत्तम क्षमा को न छोडा। हाय । मै बडा नीच व्यक्ति हूँ, जो मैने ऐसे परम योगी की अवज्ञा की । ससार मे मेरे समान वज्रपापी कोई न होगा। हाय | अज्ञानवश मैने यह कैसा अनर्थ कर डाला। अब इस पाप से मेरा छुटकारा कैसे होगा ? अब तो मुझे नियम से नरक आदि घोर दुर्गतियो मे जाना होगा। अब मै क्या करू ? कहाँ जाऊँ ? इस कमाये हुए पाप का प्रायश्चित्त किस प्रकार करू ? अब तो इस पाप को धोने का केवल यही उपाय है कि मै शस्त्र से स्वय अपना मस्तक काट कर इन मुनिराज के चरणो मे चढा कर अपने समस्त पापो का शमन करूं।" राजा श्रेणिक बिम्बसार का इस प्रकार विचार करते हुए लज्जा से मस्तक झुक गया। मारे दुःख के उनके नेत्रो मे ऑसू आ गये। मुनिराज बडे भारी ज्ञानी थे। उन्होने राजा के मन के समस्त संकल्पविकल्प को जान लिया । अतएव वह महाराज को सात्वना देते हुए बोले "राजन् ! तुमने जो अपने मन मे आत्महत्या का विचार किया है, उससे प्रायश्चित्त न होकर और भी भीषण पाप होगा। आत्महत्या बडा भारी पाप है। पाप अथवा कष्ट के कारण जो लोग परभव मे सुख मिलने की आशा मे आत्महत्या करते है उनकी यह भारी भूल है । आत्मघात से कदापि सुख नही मिल सकता। इससे परिणाम संक्लेशमय हो जाते है । सक्लेशमय परिणामो से अशुभ कर्मो का बध होता है और अशुभ कर्म के बध से नरक आदि घोर दुर्गतियो में जाना पड़ता है। राजन् । यदि तुम अपना हित करना चाहते हो तो तुम इस अशुभ संकल्प को छोड दो । यदि तुम्हे प्रायश्चित्त ही करना है तो
SR No.010589
Book TitleShrenik Bimbsr
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandrashekhar Shastri
PublisherRigal Book Depo
Publication Year1954
Total Pages288
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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