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________________ श्रेणिक बिम्बसार किया, क्योकि इससे मेरे अशुभ कर्म और भी शीघ्रतापूर्वक नष्ट हो जावेगे । सचित कर्मों की उदीरणा के लिये परीषह सहन करने का अवसर बड़े भाग्य से मिलता है । यह सर्प डालने वाला मेरा बडा उपकारी है, जो इसने परीषहो की सामग्री मेरे लिये एकत्रित कर दी । यह शरीर तो मुझ से सर्वथा भिन्न है । यह कर्म से उत्पन्न हुआ है । किन्तु मेरा आत्मा समस्त कर्मों से रहित, पवित्र एवं चैतन्य स्वरूप है । क्लेश तो शरीर को होता है, आत्मा को नही । यद्यपि यह शरीर अनित्य, महान् अपावन, मल-मूत्र का घर तथा घृणित है तथापि विद्वान् लोग न जाने क्यो इसे अच्छा समझते है । वह इत्र - फुलेल आदि सुगंधित पदार्थों से इसका संस्कार करते है । शरीर से आत्मा के निकल जाने पर यह शरीर एक पग भी नही चल सकता । इसलिये इस शरीर को अपना समझना निरी मूर्खता है । मनुष्य जो यह कहते है कि शरीर में सुख-दुख आदि होने पर श्रात्मा सुखी दुखी होता है यह बात भी उनकी सर्वथा निर्मूल है । क्योकि जिस प्रकार छप्पर में आग लगने पर केवल वह छप्पर ही जलता है तदन्तर्गत प्रकाश रही जलता, उसी प्रकार शारीरिक सुख-दुख मेरे आत्मा को सुखी - दुखी नही बना सकते । मैं अपने आत्मा को ध्यान-बल से चैतन्यस्वरूप, शुद्ध, निष्कलक समझता हूँ । यह शरीर तो जड़, अशुद्ध, अस्थि, मास तथा चर्ममय, मल-मूत्र आदि का घर तथा अनेक क्लेश देने वाला है । इसको मुझे कभी भी नही अपनाना चाहिये ।” 1 मुनिराज यशोधर इस प्रकार की भावनाओ का चिन्तन करते हुए उसी प्रकार सर्प को गले में धारण किये हुए परीषह सहन करते रहे और इधर राजारानी उनके दर्शन करने शीघ्रतापूर्वक चले आ रहे थे । उन्होने जब मुनिराज के समीप आकर उनको ज्यो का त्यो ध्यान में मग्न देखा तो आनन्द तथा श्रद्धा के मारे उनके शरीर में रोमांच हो आया। राजा ने सब से प्रथम मुनिराज के गले से उस सर्प को निकाला । रानी जब से घर से निकली थी मार्ग में चीनी बखेरती जाती थी । यहाँ तो उसने पर्याप्त बखेरी। चीनी की गध के कारण मुनिराज के शरीर पर चढ़ी हुई चींटियाँ उनके शरीर से उतर कर २५०
SR No.010589
Book TitleShrenik Bimbsr
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandrashekhar Shastri
PublisherRigal Book Depo
Publication Year1954
Total Pages288
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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