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________________ श्रेणिक बिम्बसार AAAA वह फूट-फूट कर रोने लगी। वह रोते-रोते कहने लगी "राजन् । तुमने यह क्या महापाप कर डाला। अब आपका अगला जन्म कभी भी उत्तम नही बन सकता । हाय । अब मेरा जन्म सर्वथा निष्फल है। राजमदिर मे मेरा भोग भोगना भी महापाप कर है। हाय | मेरा सम्बन्ध ऐसे कुमार्गी व्यवित के साथ क्यो हुआ । युवावस्था प्राप्त होने पर मै मर ही क्यो न गई ? हाय | अब मैं क्या करूँ ? कहाँ जाऊँ ? कहाँ रहँ ? हाय| यह मेरा प्राणपखेरू इस शरीर से क्यों नही विदा हो जाता ? प्रभो । मै बडी अभागिन हैं। अब मेरा किस प्रकार हित होग।। छोटे से छोटे गाँव, वन अथवा पर्वत मे रहना अच्छा, किन्तु जिन-धर्मरहित अति वैभवयुक्त इस राजभवन मे रहना ठीक नही। हाय दुर्दैव । तुझे मुझ प्रभागिन पर ही यह वच-प्रहार करना था ।” इस प्रकार रानी बडी देर तक बिलख-बिलख कर रोती रही। रानी के इस रुदन से राजा का पत्थर जैसा कठोर हृदय भी पिघल गया। अब उनके मुख से प्रसन्नता तिरोहित हो गई। वह एकदम किंकर्तव्यविमूढ होकर रानी को इस प्रकार समझाने लगे "प्रिये ! तू इस बात के लिये तनिक भी शोक न कर। वह मुनि अपने गले से मरे हुए सर्प को फेक कर कभी के वहाँ से चले गये होगे। मरे हुए सर्प का गले से निकालना कोई कठिन कार्य नही है।" महाराज के यह वचन सुनकर रानी बोली-. "नाथ ! आपका यह कथन भ्रम पर आधारित है। यदि वह मुनिराज वास्तव में मेरे गुरु है तो उन्होने अपने गले से मत सर्प कभी भी नहीं निकाला होगा। प्राणनाथ अचल सुमेरु भले ही चलायमान हो जावे, समुद्र भले ही अपनी मर्यादा छोड दे, किन्तु जैन मुनि के ऊपर जब ध्यान की अवस्था मे कोई उपसर्ग आ जाता है तो वह बड़े से बड़े उपसर्ग को भी सहन ही करते है, उसका स्वय निवारण नहीं करते । जैन मुनि पृथ्वी के समान क्षमा-भूषण से विभूषित होते है । वे समुद्र के समान गभीर, वायु के समान निष्परिग्रह, अग्नि के समान कर्म को भस्म करने वाले, आकाश के समान निर्लेप, जल के समान स्वच्छ चित्त
SR No.010589
Book TitleShrenik Bimbsr
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandrashekhar Shastri
PublisherRigal Book Depo
Publication Year1954
Total Pages288
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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