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________________ जैन धर्म का परिप्रहरण साथ अपने प्रकोष्ठ मे चली गई । उसके अपने प्रकोष्ठ मे जाने पर सागरदत्ता ने उस सदूक को निर्जीव समझकर एकदम जला दिया । तब उसका जामाता वसुमित्र फिर सदा के लिये मनुष्याकार बन गया । “उसी प्रकार हे दीनबन्धो । जब मै बौद्ध - गुरुनो के दर्शन करने गई तो वहा एक ब्रह्मचारी ने मुझ से कहा कि बौद्ध गुरुप्रो का आत्मा इस समय मोक्ष मे है और इनके में शरीर इस समय निर्जीव पडे है । मैने सोचा कि यदि ऐसी स्थिति है तो ऐसा यत्न करना चाहिये जिससे बौद्ध गुरुओ को शारीरिक वेदना फिर सहन न करनी पडे । यह सोचकर मैने उनके शरीरो को निर्जीव समझ कर उनमे आग लगवा दी । क्योकि इस बात को सभी जानते है कि जब तक आत्मा का इस शरीर के साथ सम्बन्ध रहता है, तब तक उसे अनेक कष्ट उठाने पडते है, किन्तु ज्यो ही इसका शरीर से सम्बन्ध छुट जाता है इसका सभी दुखो से पीछा छुट जाता है । इस प्रकार हे नाथ ! अपने शरीरो के सर्वथा जल जाने से वह समस्त गुरु सिद्ध हो जाते। मैंने तो उनको दुख से सर्वथा छुडाने के लिये ही यत्न किया था । अपनी समझ मे मैने जैन धर्म के सिद्धात के विरुद्ध कुछ भी कार्य नही किया । प्रभो । अब आप स्वय विचार कर ले कि इसमें मैने क्या अपराध किया ? 1 "सभी बौद्ध गुरु मण्डप मे आग लगते ही भागकर बाहिर आ गए। इससे यह सिद्ध है कि उनका वह ध्यान सच्चा ध्यान नही था । ध्यान के बहाने से वह भोले जीवो को ठग रहे थे । मोक्ष कोई ऐसी सुलभ वस्तु नही जो सब किसी को अनायास ही मिल जावे । मोक्ष प्राप्त करने की जो प्रणाली जैन आगम मे बतलाई गई है वही उत्तम और सुखप्रद है । आपको अपने चित्त को शात करके बौद्ध साधुग्रो के ढोग को समझ लेना चाहिये ।” रानी चेलना के इन युक्तिपूर्ण वचनो से राजा श्रेणिक को कुछ भी उत्तर देते न बना । यद्यपि रानी के सामने उनको निरुत्तर होना पडा, किंतु अपने गुरु का पराभव देख उनके चित्त मे प्रशाति बनी ही रही । उनके मन मे बराबर यह विचार बना रहा कि रानी ने बौद्ध-गुरुप्रो को जलाने का यत्न २४५
SR No.010589
Book TitleShrenik Bimbsr
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandrashekhar Shastri
PublisherRigal Book Depo
Publication Year1954
Total Pages288
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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