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________________ बुद्धि-चातुर्य इतने विनयभाव से भी महाराज का हृदय दया से नहीं पसीजा? अब हम अपने बचने का और क्या उपाय करे ?" ___इस प्रकार विचार करते हुए वे कुमार के पास आमे और वहा रो-रोकर इस प्रकार विलाप करने लगे "हे वीरो के सिरताज कुमार | अब की बार तो महाराज ने हमारे पास अत्यन्त कठिन आज्ञा भेजी है । हे कृपानाथ | आप इस भयकर विघ्न से हमारी शीघ्र रक्षा कीजिये । हे दीनबन्धो | इस भयकर कष्ट से भाप ही हमारी रक्षा कर सकते है। हमारे दुख-पर्वत का नाश करने मे आप ही हमारे लिए अखड बन है। महनीय कुमार | लोक मे जिस प्रकार समुद्र की गम्भीरता, सुमेरु पर्वत का अचलपना, बहस्पति की विद्वत्ता, सूर्य की तपिश, इन्द्र का स्वामित्व, चन्द्रमा की मनोहरता, राजा रामचन्द्र की न्यायपरायणता, राजा हरिश्चन्द्र की सत्यवादिता तथा कामदेव का सौन्दर्य प्रसिद्ध है उसी प्रकार आपकी सज्जनता तथा विद्वत्ता भी प्रसिद्ध है। हे स्वामिन् ! हमारे ऊपर प्रसन्न होइये, हमको धैर्य बधाइये और हमारी इस नई आपत्ति से रक्षा कीजिये। भला ऐसा पेठा कहा से आ सकता है, जो घडे के अन्दर बन्द रहते हुए भी घडे के पेट के ठीक बराबर बड़ा हो।" ब्राह्मणो के इस प्रकार रुदन करने से कुमार अभय का चित्त दया से गदगद हो गया। उन्होने गम्भीरतापूर्वक ब्राह्मणो से कहा__“ब्राह्मणो | आप लोग इस जरा सी बात के लिये क्यो घबराते हैं। मैं अभी इसका उपाय करता हूँ। मैं जब तक यहा हूँ आप सम्राट् की आज्ञा का किसी प्रकार भय न करे।" ब्राह्मणो को इस प्रकार समझाकर कुमार अभय ने एक घडा मगवाया और उसमे बेल सहित एक पेठे को रख दिया । बेल की जड को पृथ्वी मे जल देकर पुष्ट किया जाता रहा और पेठा घडे के मुह के द्वारा उसके पेट मे पडापड़ा बढने लगा। कई दिन बाद बह पेठा बढकर घडे के पेट के ठीक बराबर हो गया। तब कुमार ने उसको बेल मे से तुड़वाकर भडे अहित महाराज की मेगा मे भेज दिया। १२६
SR No.010589
Book TitleShrenik Bimbsr
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandrashekhar Shastri
PublisherRigal Book Depo
Publication Year1954
Total Pages288
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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