SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 178
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ७३. उदासीन-साधक को परुप वचन वोलते हैं । ७४. पलित/कृत कार्य का कथन करते हैं अथवा अतथ्य का कयन करते हैं । ७५. मेवावी उस धर्म को जाने । ७६. तू अधर्मार्थी है, बाल है, प्रारम्भार्थी है, अनुमोदक है, हिंसफ है, घातक है, हनन करने वाले का समर्थक है । ७७. धर्म दुष्कर है। ७८. जो प्रतिपादित धर्म की अनाज्ञा से उपेक्षा करता है। वह विपण्ण और वितर्क व्याख्यात है। -~-ऐसा मै कहता हूँ। ७६, 'अरे ! इस स्वजन का मैं क्या करूंगा-इस प्रकार मानते और कहते हुए कुछ लोग माता, पिता, ज्ञातिजन और परिग्रह को छोड़कर वीरतापूर्वक समुपस्थित होते हैं, अहिंसके, सुव्रती और दान्त होते है । ८०. दीन, उत्पतित और पतित लोगों को देख । ६१. विषय-वशवर्ती कायर-जन लूसक/ विध्वंसक हैं । ६२. इनमें से कुछ श्लाध्य और पातक हैं । ५३. उस विभ्रान्त और विभ्रष्ट श्रमण को देखो। ८४. कुछ मुनि समन्वागत या असमन्वागत, नम्रीभूत या अनम्रीभूत, विरत या अविरत, द्रवित यो अद्रवित हैं । ८५. यह जानकर पण्डित, मेधावी, निश्चयार्थी वीर-पुरुप सदा आगम के अनुसार पराकम करे। --ऐसा मैं कहता हूँ। १६४
SR No.010580
Book TitleAgam 01 Ang 01 Acharang Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhsagar
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year1989
Total Pages238
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_acharang
File Size5 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy