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________________ प्रथम उदेशक १. इस संसार में वही नर है, जो मनुष्योंके वीच बोधिपूर्वक आख्यान करता है । २. ३. ४. ५. ६. ७. 5 कुछ पुरुष वृक्ष के समान नियत स्थान को नहीं छोड़ते । इस प्रकार कुछ पुरुष अनेक प्रकार के कुलों में उत्पन्न होते हैं, रूपों / विषयों में ग्रासक्त होते हैं, करुण स्तनित / विलाप करते हैं, निदान के कारण वे मोक्ष को प्राप्त नहीं करते । अरे देख ! उन-उन कुलों/रूपों में तू बार-वार उत्पन्न हुआ है । १०. गण्डी—–— कण्ठरोगी, कोढ़ी, राजंसी / राजरो दमा, अपस्मार - मृगी, कारणा, कूरिणत्व हस्त-पंगुता, सुन्नता -- लकवा, कुब्जता - कुवड़ापन, ६. जिसे वे जातियाँ सभी प्रकार से सुप्रते लेखित हैं, वह श्रनुपम ज्ञान का आख्यान करता है ! धुत समुपस्थित, निक्षिप्तदण्ड, समाधियुक्त, प्रज्ञावन्त पुरुष के लिए ही इस संसार में मुक्ति-मार्ग प्रकीर्तित है । इस प्रकार कुछ महावीर पुरुष विशेष पराक्रम करते हैं । अवसाद करते हुए कुछ अनात्मप्रज्ञ पुरुष को देखो । वही कहता हूँ जैसे कि पलाश से प्रच्छन्न हृद में कोई विनिविष्ट / एकाग्रचित्त का उन्मार्ग को प्राप्त नहीं करता है । १५५
SR No.010580
Book TitleAgam 01 Ang 01 Acharang Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhsagar
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year1989
Total Pages238
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_acharang
File Size5 MB
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