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________________ इस प्रस्तावित स्थिति में प्रवेश करने के लिए अावश्यक है कि साधक को सदा उसे खोजना चाहिये, जो संसार-सरिता के सतत वहाव के बीच में भी स्थिर है। संसार तो नदी-नाव का संयोग है। अत: निस्संग-साधक के लिए संग उसी का उपादेय है, जिसे मृत्यु न चूम सके । संसार से महाभिनिष्क्रमरण/महातिक्रमण करने वाला सिद्धों की ज्योति विकसित कर सकता है । अभिनिष्क्रमण वैराग्य की अभिव्यक्ति है । वैराग्य राग का विलोम नहीं, अपितु राग से मुक्ति है। वैराग्य-पथ पर कदम वर्धमान होने के बाद संसार का आकर्पण दमित राग का प्रकटन है। यदि संसार के राग-पापारणों पर वैराग्य की सतत जल धार गिरती रहे तो कठोर से कठोर चट्टान को भी चकनाचूर किया जा सकता है। वान्त संमार साधक का प्रतीत है और अतीत का स्मरण मन का उपद्रव है । अपने अस्तित्व में निवास करना ही प्रास्तिकता है। साधक ज्यों-ज्यों सूर्य बन तपेगा, त्यों-त्यों मुक्ति की पंखुरियों के द्वार उद्घाटित होते चले जाएंगे। साधक का जीवन संघर्ष, अहिंसा एवं सत्यविजय की एक अभिनव याना है । वह शर्बुजयो एवं मृत्युंजयी है। सिद्धाचल के शिखने पर प्रारोहण करते समय चूकने/फिसलने का खतरा सदा साथ रहता है । पथ-च्युति चुनौती है, किन्तु प्रत्येक फिसलन एक शिक्षण है । अप्रमत्तता तथा जागरूकता पथ की चौकशी है । प्रज्ञासंप्रेक्षक और प्रात्म-जागृत पुरुष हर फिसलन के पार है । संयम-यात्रा को कष्टपूर्ण जानकर पथ-तट पर बैठ जाना संकल्प-शैथिल्य है। जागरूकतापूर्वक साधना-मार्ग पर बढ़ते रहना तपश्चर्या है । साधक के लिए सिद्धि ही सर्वोपरि कृत्य है । जीवनऊर्जा को समग्रता के साथ साधना में एकाग्र करने वाले के लिए कदम-कदम पर मंज़िल है।
SR No.010580
Book TitleAgam 01 Ang 01 Acharang Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhsagar
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year1989
Total Pages238
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_acharang
File Size5 MB
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