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________________ 151954555454545454545454545454545 एक ऐसे प्रतिभाशाली आचार्य हुए हैं जिन्होंने समस्त दर्शनों का तलस्पर्शी 4 ज्ञान प्राप्त करके स्वनिर्मित ग्रन्थों में अपने उच्चकोटि के पाण्डित्य का परिचय 11 तथा उन्हीं के द्वारा निर्दिष्ट मार्ग पर चलकर अकलंकन्याय को सर्वथा । पल्लवित तथा पुष्पित किया है। आचार्य विद्यानन्द ने कणाद, प्रशस्तपाद, और व्योमशिव इन वैशेषिक विद्वानों के, अक्षपाद, वात्स्यायन और उद्योतकर इन नैयायिक विद्वानों के, जैमिनि, शबर, कुमारिल भट्ट और प्रभाकर इन मीमांसकों के, मण्डनमिश्र और सुरेश्वर मिश्र इन वेदान्तियों के, कपिल, ईश्वरकृष्ण और 21 पतञ्जलि इन सांख्य-योग के आचार्यों के तथा नागार्जुन वसुबन्धु, दिग्नाग, L: धर्मकीर्ति, प्रज्ञीकर और धर्मोत्तर इन बौद्धदार्शनिकों के ग्रन्थों का सर्वांगीण अध्ययन किया था। इसके साथ ही जैन दार्शनिक तथा आगमिक साहित्य भी उन्हें विपुलमात्रा में उपलब्ध था। अतः अपने समय में उपलब्ध जैन वाङ्गमय तथा जैनेतर वाङ्गमय का सांगोपांग अध्ययन और मनन करके आचार्य विद्यानन्द ने यथार्थ में अपना नाम सार्थक किया था। यही कारण है उनके द्वारा रचित ग्रन्थों में समस्त दर्शनों का किसी न किसी रूप में उल्लेख मिलता है। आचार्य विद्यानन्द ने अपने पूर्ववर्ती अनेक ग्रन्थकारों के नामोल्लेख पूर्वक और कहीं-कहीं बिना नामोल्लेख के उनके ग्रन्थों से अपने ग्रन्थों में अनेक उद्धरण प्रस्तुत किये हैं। तथा पूर्वपक्ष के रूप में अन्य दार्शनिकों के सिद्धान्तों को प्रस्तुत करके प्राञ्जल भाषा में उनका निराकरण किया है। उनके ग्रन्थों का प्रायः बहुभाग बौद्धदर्शन के मन्तव्यों की विशद आलोचनाओं से भरा हुआ है। आचार्य विद्यानन्द अकलंक देव के प्रमुख व्याख्याकार हैं। आचार्य विद्यानन्द द्वारा विरचित अष्टसहस्री आचार्य समन्तभद्र की आप्तमीमांसा पर विस्तृत और महत्त्वपूर्ण व्याख्या है। इस व्याख्या में अकलंक देव द्वारा रचित अष्टशती को इस प्रकार से आत्मसात् कर लिया गया है जैसे वह अष्टसहस्री का ही अंग हो। यदि आचार्य विद्यानन्द अष्टसहस्री को Eन बनाते तो अष्टशती का रहस्य समझ में नहीं आ सकता था। क्योंकि अष्टशती का प्रत्येक पद और वाक्य इतना क्लिष्ट और गूढ़ है कि अष्टसहस्री के बिना विद्वान् का भी उसमें प्रवेश होना अशक्य है। आचार्य विद्यानन्द ने अष्टसहस्री में अपनी सूक्ष्मबुद्धि से आप्तमीमांसा और अष्टशती के हार्द को विशेषरूप से स्पष्ट किया है। आप्तमीमांसा और अष्टशती में निहित तथ्यों के उद्घाटन के अतिरिक्त अष्टसहस्री में अनेक नूतन विचारों का भी समावेश किया गया है। हम कह सकते हैं कि अष्टसहस्री में पूर्वपक्ष या उत्तरपक्ष के रूप में समस्त दर्शनों के सिद्धान्तों का विवेचन किया गया है। इसीलिए आचार्य प्रशममूर्ति आचार्य शान्तिसागर छाणी स्मृति-ग्रन्थ 479 5955555555555555559999
SR No.010579
Book TitlePrashammurti Acharya Shantisagar Chani Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKapurchand Jain
PublisherMahavir Tier Agencies PVT LTD Khatuali
Publication Year1997
Total Pages595
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationSmruti_Granth
File Size22 MB
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