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________________ 555555555555555555555 अष्टसहस्री : एक अध्ययन अष्टसहस्री आचार्य विद्यानन्द की एक महत्त्वपूर्ण कृति है। इसका 'आप्तमीमांसालंकार', 'आप्तमीमांसालंकृति', 'देवागमालंकार और 'देवागमालंकृति' इन नामों से भी उल्लेख किया गया है। इसमें 10 परिच्छेद हैं। प्रत्येक परिच्छेद के अन्त में जो पुष्पिका-वाक्य है उनमें इसका नाम आप्तमीमांसालंकृति दिया गया है। द्वितीय परिच्छेद के प्रारंभ में आचार्य विद्यानन्द ने जो पद्य दिया है उसमें इसका नाम अष्टसहस्री बतलाया है। वह पद्य इस प्रकार है श्रोतव्याष्टसहस्त्री श्रुतैः किमन्यैः सहस्त्र संख्यानैः। विज्ञायते यथैव स्वसमय पर समय सद्भावः।। आप्तपरीक्षा में इसे देवागमालंकृति और देवागमालंकार भी कहा है। अष्टसहस्री आप्तमीमांसा की अत्यन्त विस्तृत और प्रमेयबहल व्याख्या है। इसमें आचार्य अकलंक देव की अष्टशती को आत्मसात् कर लिया गया है। अष्टसहस्री के बिना अष्टशती का गूढ़ रहस्य समझ में नहीं आ सकता है। आचार्य विद्यानन्द ने अष्टसहस्री के अन्त में एक श्लोक लिखा है जिसमें अष्टसहस्री को कुमारसेन की उक्तियों से वर्धमान बतलाया है। वह श्लोक निम्न प्रकार है कष्टसहस्त्री सिद्धा साष्टसहस्त्रीयमन मे पष्यात। शश्वदभीष्टसहस्त्री कुमार सेनोक्ति वर्धमानार्था।। इसका तात्पर्य यही है कि कमार सेन नामक आचार्य ने आप्तमीमांसा पर कुछ लिखा था और आचार्य विद्यानन्द ने उससे लाभ उठाया था। इस श्लोक में अष्टसहस्री को कष्टसहस्री भी कहा है, इससे ज्ञात होता है कि अष्टसहस्री की रचना में हजारों कष्टों को सहन करना पड़ा था। इसका 51 अध्ययन भी कष्टकारी है। अर्थात् कोई जिज्ञासु हजारों कष्ट उठाकर ही अष्टसहस्री का अध्ययन कर सकता है। अष्टसहस्त्री के रचयिता आचार्य विद्यानन्द 1 जैन न्याय के प्रतिष्ठापक आचार्य अकलंक के बाद श्री विद्यानन्द जी ॥ - - 51478 -TET प्रशममूर्ति आचार्य शान्तिसागर छाणी स्मृति-ग्रन्थ Pा मााााा IPIRIDIII .
SR No.010579
Book TitlePrashammurti Acharya Shantisagar Chani Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKapurchand Jain
PublisherMahavir Tier Agencies PVT LTD Khatuali
Publication Year1997
Total Pages595
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationSmruti_Granth
File Size22 MB
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