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________________ 59459557456457457454545454941509454 .. आचार्य रविषेण : व्यक्तित्व एवं कृतित्त्व भारतीय साहित्य की सुविस्तृत परम्परा को जैन साहित्यकारों ने अपना 4 अनर्घ-अर्घ देकर अर्घवान बनाया है। माँ सरस्वती के श्रृंगार में चार चांद लगाते TH हुए इन साहित्यकारों ने तीर्थङ्करों की दिव्य ध्वनि को दिगदिगन्त-व्यापिनी बनाया है। पर्व से पश्चिम, उत्तर से दक्षिण, प्राकत से हिन्दी और भूत से वर्तमान काल (आज) तक जैन साहित्यकार अपनी साहित्य सृजनात्मकता से भारतीय ज्ञानकोष के एक स्तम्भ बने रहे हैं। प्राचीन काल में गुणधर, धरसेन जैसे महान् आचार्य हुए जिन्होंने तीर्थङकरों की वाणी को साहित्य के माध्यम से जन-जन तक पहुँचाया। इसीलिए श्रमण परम्परा में तीर्थङ्करों के बाद शास्त्र को महत्त्व दिया गया है। परिमाण और गुणवत्ता दोनों दृष्टियों से जैन साहित्य को अपर्याप्त और असंतोषजनक नहीं कहा जा सकता किन्तु खेद का विषय है कि जैन साहित्य और साहित्यकारों के योगदान को भारतीय साहित्य के इतिहास में उस रूप में परिभाषित नहीं किया जा सका जिस रूप में उसे किया जाना चाहिए था। इतिहास ग्रन्थों में मात्र दो चार पंक्तियाँ देकर इतिश्री समझ ली गई है। जैन साहित्य के महत्त्व के सन्दर्भ में विदेशी विद्वान विण्टरनित्ज ने लिखा हैwas not able to do full justice the literary achievements of the Jainas. But I hope to have shown that the Jainas have contributed their full share to the reliqious, ethica and scientific literature of ancient India." सौभाग्य से उन्नीसवीं-बीसवीं शती में प्राच्य और पाश्चात्य विद्वानों का ध्यान इस ओर गया, फलतः अनेक ग्रन्थों के सुसंपादित और अनूदित संस्करण निकले। तुलनात्मक और विश्लेषणात्मक दृष्टि से भी अनेक शोधपरक प्रबंध और निबन्ध लिखे गये प्रस्तुत निबन्ध इसी सारणि की एक कड़ी है। जैन साहित्य परम्परा में आगम और कर्म-साहित्य के बाद पुराण साहित्य विशाल रूप में उपलब्ध है। प्रथमानयोग का विषय होने के कारण पुराण साहित्य ही ऐसा साहित्य है जो घर-घर में पढ़ा जाता है। सामान्य ज्ञान वाला ज्ञानी भी इसे आसानी से पढ़ और समझ लेता है, इस दृष्टि से पुराण साहित्य का अपना अलग ही महत्त्व है। - प्रशममूर्ति आचार्य शान्तिसागर छाणी स्मृति-ग्रन्थ 543545454545454545454575749957151
SR No.010579
Book TitlePrashammurti Acharya Shantisagar Chani Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKapurchand Jain
PublisherMahavir Tier Agencies PVT LTD Khatuali
Publication Year1997
Total Pages595
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationSmruti_Granth
File Size22 MB
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