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________________ 45454545454545454545454545454545 त्रिभुवन के मझधार में युग बीते पर तृप्ति न अब तक पा पाये संसार से इसीलिए तो भटक रहे हम त्रिभुवन के मझधार में। कितनी बार लिया है जीवन रूप बदल कर ठांव में राजा हुआ कभी नगरी में कभी भिखारी गाँव में कोटि कोटि दीनारों का अधिपति कितनी बार हुआ बांधे रहा सदा कंचन जंजीर स्वयं ही पांव में धूप छांव में आंगन सुख दुख के झूले झूलते बिता दिये सोने से दिन हमने केवल अभिसार में। इसीलिए जो भटक रहे हम त्रिभुवन के मझधार में।। रागद्वेष को स्वयं सौंप दी जब जीवन की डोर रे मोह और ममता दोनों का कोई ओर न छोर रे तष्णा की अग्नि में जलते इसीलिए तो प्राण हैं कैसे पा सकते तब बोलो शान्ति सुखों की भोर रे नहीं कभी पहिचाना हमने अपने सत्य स्वरूप को बहते रहते लक्ष्य हीन होकर सुख दुख की धार में इसीलिए तो भटक रहे हम त्रिभुवन के मझधार में।। सुख दुख में जब तक समता का भाव नहीं आ पायेगा रागद्वेष से जब तक मन का नाता टूट न पायेगा हमें जूझते ही रहना तब तक कमों के बन्ध से तभी मुक्ति पा पायेंगे हम जन्म मृत्यु के द्वन्द्व से जिन जिन ने कर्मों को जीता मुक्त हए वे भव रोग से नहीं जन्म लेना उनको अब इस दुखमय संसार में नहीं भटकना है उनको अब त्रिभुवन के मझधार में। युग बीते पर तप्ति न अब तक पा पाये संसार से इसीलिए तो भटक रहे हम त्रिभूवन के मझधार में || पूज्य मुनि शान्तिसागर ने, तोड़ा जग से नाता था काम क्रोध मद लोभ मोह न पास में उनके आता था इसीलिए वह योगीश्वर बन छुटेंगे संसार से युग बीते और तृप्ति पा लई उनने इस संसार से इसीलिए न भटकेंगे वे त्रिभूवन के मझधार में।। सागर __-फूलचन्दजी 'मधुर' (स्वतन्त्रता संग्राम सेनानी) प्रशममूर्ति आचार्य शान्तिसागर छाणी स्मृति-ग्रन्थ 276 471511511151STIFIFIFIFIFIFI नानानानानानानाLELIEEEEE
SR No.010579
Book TitlePrashammurti Acharya Shantisagar Chani Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKapurchand Jain
PublisherMahavir Tier Agencies PVT LTD Khatuali
Publication Year1997
Total Pages595
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationSmruti_Granth
File Size22 MB
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