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________________ IPIPUR यह न समझो नर्क वही है, जहां नारकी गण वसते 111611 नर्क यहीं है स्वर्ग यहीं है, पाप पुण्य जन मन साथी, कर्मों के फल स्वयं दीखते, न भविष्य तक रख साखी, श्री जिनेन्द्र से पावन भगवन, गुरु दिगम्बर सत्य यति, शिखरसम्मेद सा तीरथ पूजो, शुद्ध करो जन स्वयं मति ||1711 जो इनकी शरणों में आया, भव बन्धन उसने काटा, आधि व्याधियां नष्ट हुई हैं, शाश्वत सुख को है पाता, सोच करो न अब कुछ मन में, भज ले श्री जिन की वाणी, निर्ग्रन्थ गुरु का सुमिरण कर ले, ग्रहण करो श्री जिनवाणी ||1811 लोहा गर पारस को छूले, वह सोना बन जाता है, शशि का ऐसा प्रभाव कि, ताप भी शीतल होता है, जीवन गर अभिशाप बना है, बना हुआ वरदान स्वरूप, धन्य धन्य हे जैन ऋषिश्वर, पावन कितना सम्यक् रूप ||1911 आचार्य श्री का ही प्रकाश है मुनिधर्म है उजियाला, कल्पलता सी शीतलता है, सन्ताप ताप का है टाला, भक्ति भोर पुलकित हो नाचे, ऋषिधर्म पर बलिहारी, सुर नर किन्नर महिमा गाते, धर्मामृत के हैं अधिकारी | 2011 श्रद्धानत मस्तक अंजलि में, श्रद्धा सुमन समर्पित, नमन तुम्हें शत बार हमारा, अभिनन्दन कर अर्पित, युग युग तक गायी जावेगी, डग डग पर तव गाथा, जग जन मानव है आभारी, झुका रहेगा पद माथा 112111 आंखों में सागर है, वे शान्ति दिवाकर छाणी के, मन वीणा झंकृत हो उठती, अर्चन कर उस वाणी के, इनसा सच्चा ऋषिवर पाकर, माँ भारत मुस्काये जरूर, दिखलाया सत्पथ मानव को, वे मुनिवर हैं जग के नूर 1/22 || कोटि कोटिशः नमन तुम्हें हैं. ये गुरु जग के हितकारी, अपने सूक्ष्म महाचिन्तन से, मुनि प्रथा जिन विस्तारी, जीवन की आदर्श रश्मियाँ, लक्ष्य मुक्ति का धन्य हुआ, पौरुष जिसका रवि तेज सा, जग जगती अभिवंद्य हुआ ।।23|| स्याद्वाद औ अनेकान्त के दिव्य रूप थे गुरु विशेष, रत्नत्रय जीवन का पथ है, जिससे नशते सारे क्लेश, साम्यभाव के पावन मुनि को, मेरा अभिवन्दन अभिराम, दिव्य विमति ज्ञानज्योति को, मेरा शतशः शरण प्रणाम 112411 मेरा शतशः चरण प्रणाम! आरा शशिप्रभा जैन 'शशांक' 271 प्रशममूर्ति आचार्य शान्तिसागर छाणी स्मृति-ग्रन्थ
SR No.010579
Book TitlePrashammurti Acharya Shantisagar Chani Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKapurchand Jain
PublisherMahavir Tier Agencies PVT LTD Khatuali
Publication Year1997
Total Pages595
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationSmruti_Granth
File Size22 MB
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