SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 202
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 1lPIRIT म छोड़िये बड़े-बड़े गाँवों एवं कस्बों में भी कोई व्यवस्थित स्कूल या विद्यालय नहीं था। महाजन के बेटे के लिये महाजनी सीख लेना तथा हिसाब-किताब F- कर लेना और अधिक से अधिक पूजा-पाठ की पुस्तक पढ़ लेना ही पर्याप्त शिक्षा मानी जाती थी। बालक केवलदास ने यह सब सीख लिया था। वह जिन-दर्शन करने मंदिर जाता था तो स्वयं स्वाध्याय भी करता और दूसरे दर्शनार्थियों को भी बॉचकर सना देता था। बालक तो था ही, लोगों को उसके बोल मधुर लगते और सुनकर सब प्रसन्न हो जाते। धीरे-धीरे केवलदास में स्वाध्याय के प्रति सम्मान बढ़ने लगा। जब केवलदास पन्द्रह वर्ष के हुए तो कमाने खाने की चिन्ता सताने लगी। उन्होंने नौकरी भी कर ली और अपना रोजगार भी करने लगे। व्युत्पन्न मति थे, इसलिये कभी असफलता हाथ लगने का प्रश्न तो था ही नहीं। इनके एक बहनोई बाकानेर (गुजरात) में रहते थे। नाम था गुलाबचन्द पानाचन्द। वे कभी-कभी छाणी गॉव आया करते थे। उनकी भी स्वाध्याय में गहरी रुचि थी। इसलिये घर पर धार्मिक पुराण लेकर स्वाध्याय करते थे। केवलदास की रुचि जानकर उसे भी पुराणों की बातें सुनाया करते थे। केवलदास उनकी बातों में गहन रुचि लेते। एक बार वे नेमिनाथ पुराण का स्वाध्याय कर रहे थे। नेमिनाथ के वैराग्य की घटना उन्होंने केवलदास को सुनाई। उससे केवलदास के हृदय में संसार से विरक्ति के भाव पैदा होने लगें, इस घटना का शशिप्रभा जैन शशांक आरा ने शान्तिसागर वन्दन में निम्न शब्दों में वर्णन किया है नेमीश्वर की जग असारता का चरित्र सुन्या केवल। ना ही सार है जग में कोई, मोही क्यों मन है पागल ।। केवलदास के बहनोई तो जब कभी छाणी आते ही रहते थे। ये श्री केवलदास को पुराण की कथायें सुनाते तथा विरक्ति परक कथाओं को विस्तार से कहते रहते। केवलदास को ये सभी आख्यान अच्छे लगते और जगत् की असारता का जब कभी वर्णन करते तो वह उसे मन लगाकर सुनते F1 रहते। नेमिनाथ के तोरण द्वार से वैराग्य की ओर मुड़ने की इस घटना ने LE तो केबलदास का जीवन ही बदल दिया। उसने भगवान जिनेन्द्र के अतिरिक्त किसी अन्य देवता के आगे सिर नहीं झुकाने की प्रतिज्ञा ले ली और रात्रिभोजन का भी त्याग कर दिया। केवलदास का यह त्याग वैराग्य की प्रशममूर्ति आचार्य शान्तिसागर छाणी स्मृति-ग्रन्थ 151 55555555559455
SR No.010579
Book TitlePrashammurti Acharya Shantisagar Chani Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKapurchand Jain
PublisherMahavir Tier Agencies PVT LTD Khatuali
Publication Year1997
Total Pages595
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationSmruti_Granth
File Size22 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy