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________________ बाबा: 5 प्रशममूति, सन्त हुए. जि सच्चे साधु : सच्चे गुरू : सच्चे श्रमण प्रशममूर्ति, दिगम्बराचार्य श्री 108 शान्तिसागर जी महाराज (गणी) इस युग के वे अप्रतिम सन्त हुए, जिन्होंने विलुप्तप्रायः दिगम्बरत्व के वैभव को स्वयं के द्वारा प्रकाशवान, प्रभावान बनाया। "साध्यनिसहजमवं प्राकृतिक वेषं वा स्वीकारोतति साधु", अर्थात जो अपने स्वभाव को साधते हुए अधिकृत (प्राकृतिक) वेष का धारक हो, वह साधु हैं। साधु की इस परिभाषा को सार्थकता :देते हुए दिगम्बर साधु के रूप में "गुरु" संज्ञा को भी सार्थक किया। "क्षत्रचूडामणि" में गुरू की परिभाषा निम्नवत है : रत्नत्रयं विशुद्धः सन, पात्रस्नेही परार्थकता परिपालितधर्मो हि, भवाब्धेर-तारकाः गुरूः।। अर्थात जो रत्नत्रय से विशुद्ध हैं, पात्र है, वात्सल्य प्रदान करने वाले TE हैं, परोपकारी हैं, स्वयं धर्म का पालन करते हैं तथा दूसरों से कराते हैं, संसार समुद्र से पार करते हैं, वे गुरू कहलाते हैं। आचार्य श्री ने अपने गुरुत्व को समझा और जीवनपर्यन्त कठोर साधना करते हुए प्राणीमात्र को धर्मामृत का 1पान कराकर सन्मार्ग पर लगाया। उनके शिष्य-प्रशिष्य भी संख्यात्मक दृष्टि से कम नहीं हैं। वर्तमान में दिगम्बराचार्य श्री 108 सुमतिसागर जी, श्री 108 निर्मलसागर जी, श्री 108 स्याद्वाद विद्याभूषण सन्मतिसागर जी, श्री 108 उपाध्याय ज्ञानसागर जी जैनागम के ऐसे पथ प्रदर्शक आपकी परम्परा के शिष्य-प्रशिष्य हैं, जिन पर वर्तमान पीढी तो गर्व करती ही है, आगे आने वाली पीढ़ियाँ भी गर्व करेंगी। सांसारिक अशान्ति के बीच आपका शान्तभाव, भौतिकता की आंधी के बीच आपका निर्वेद (वैराग्य) भाव, विरोधी के प्रति वात्सल्य, छली के प्रति निश्छलभाव, कुगुरु-कुदेव-कुशास्त्र की मान्यताओं के बीच आपकी जिनेन्द्रदेव, जिनप्रणीत शास्त्र और वीतरागी गुरुओं के प्रति प्रगाढ़ आस्था आचार्य कुन्कुन्दस्वामी की इस श्रमणत्व कसौटी पर खरी उतरती हैं - |समसन्तु बंधुवग्गो सम सहदक्खो पसंसणिंद समो। . |सम लोढकंचणोपुण, जीविदमरणे समो समणो।। . अर्थात् जो शत्रु और मित्र में सुख और दुख में, प्रशंसा और निन्दा में, मिट्टी । और स्वर्ण में तथा जीवन और मरण में समभाव रखता है, वही श्रमण है। सर्प जैसे कुटिल प्राणियों को भी जिनसे वात्सल्य मिला हो, जिनके दयाभाव से प्राणियों के गले पर रखे आरे उतार लिए गये हों, जो सामने आ रही मौत के बीच भी अडिग-अकम्प रहा हो, ऐसे महान व्यक्तित्व का नाम "शान्तिसागर" सार्थक ही है। मैं उन महान साधक के व्यक्तित्व और कृतित्व को प्रणाम करता हुआ अपनी श्रद्धाञ्जलि व्यक्त करता हूँ। पुरहानपुर (म.प्र.) डॉ. सुरेन्द्र जैन "भारती" प्रशममूर्ति आचार्य शान्तिसागर छाणी स्मृति-ग्रन्थ नानानानानानानानानानानारामान HETHEITIESHHHHHHHधमा
SR No.010579
Book TitlePrashammurti Acharya Shantisagar Chani Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKapurchand Jain
PublisherMahavir Tier Agencies PVT LTD Khatuali
Publication Year1997
Total Pages595
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationSmruti_Granth
File Size22 MB
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