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________________ श्रीशान्तिसागरचरित्र। विरोधं विघ्नसंघातं भेदयन् बोधयन् जनान् । सर्वत्र मंगलं कुर्वन सुखशान्ति प्रसारयन् ॥८५॥ संप्राप्तः सर्वसंघेन नवीननगरं वरम् । बहुभिः श्रावकैः सार्द्ध प्राविशन्नगरं मुदा ॥८६॥ अर्थ- तदनंतर उस देशमें सब जगह विहार करते हुए, सदा धर्मका उद्योत करते हुए, उपसर्गोको सहन करते हुए, भव्यजीवोंको आनंदके साथ संतुष्ट करते हुए, विरोध और विघ्नोंके समूहको नाश करते हुए, लोगोंको धर्मोपदेश देते हुए, सब जगह आनंदमंगल करते हुए, सुखशांति फैलाते हुए वे धीरवीर आचार्य अपने समस्त संघके साथ धर्मकी वृद्धि करनेवाले नयानगर-व्यावर नगरमें पहुंचे तथा अनेक श्रावकोंके साथ आनन्द के साथ नगर में प्रवेश किया। धर्मवीरस्य विदुषः चंपालालस्य श्रेष्ठिनः । मोतीलालादि सर्वेषां पुत्राणां तत्र श्रेष्ठिनः॥८७॥ प्रार्थनावशतस्तत्र ज्ञात्वा क्षेत्रं शुभं मुदा। वर्षायोगः समारब्धः ससंघेन च सूरिणा ॥८॥ छाणीस्थेन ससंधेन शांतिसागरसूरिणा। गुरुवर्यस्य निकटे वर्षायोगो धृतस्तदा ।।८९॥ __ अर्थ- अत्यंत विद्वान् और धर्मवीर सेठ चंपालाल ___ की प्रार्थनासे तथा उन्हीं सेठके मोतीलाल आदि समस्त
SR No.010578
Book TitleChaturvinshati Jin Stuti Shantisagar Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLalaram Shastri
PublisherRavjibhai Kevalchand Sheth
Publication Year1936
Total Pages188
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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