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________________ Miwarwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwww * - - - * वृहज्जैनवाणीसंग्रह ३७ ३१-बुधजनकृत स्तुति। प्रभु पतितपावन मैं अपावन, चरण आयो शरणजी। यो । विरद आप निहार स्वामी, मेट जामन मरनजी ॥ तुम ना । पिछान्या आनमान्या, देव विविध प्रकारजी। या बुद्धिसेती निज न जाण्या, भ्रम गिण्या हितकारजी ॥ १ ॥ भवविकट वनमें करम बैरी, झानधन मेरो हरयो । तब इष्ट भूल्यो भ्रष्ट । * होय, अनिष्टगति धरतो फिरयो ॥ धन घड़ी यो धन दिवस योही, धन जनम मेरो भयो । अब भाग मेरो उदय आयो, में दरश प्रभुको लखि लयो ॥२॥ छवि वीतरागी नगनमुद्रा, दृष्टि नासापै धरै । बसु प्रातिहार्य अनन्त गुणयुत, कोटि रवि छविको हरै ॥ मिटगयो तिमिर मिथ्यात मेरो, उदयरवि * आतम भयो । मो उर हरष ऐसो भयो, मनु र चिन्तामणि । लयो ॥३॥ मैं हाथ जोड़ नवाय मस्तक, बीनऊं तव चरनजी सर्वोत्कृष्ट त्रिलोकपति जिन, सुनो तारन तरनजी ॥ जानू । नहीं सुरचास पुनि नरराज परिजन साथजी ।"बुध"जाचहूं तुव भक्ति भव भव दीजीये शिवनाथजी ।। ४।' ३२-भागचन्द्रकृत स्तुति (१) । दोहा-विश्वभाव व्यापी तदपि, एक विमल चिद्रूप । ___ ज्ञानानंदमयी सदा, जयवंतो जिनभूप ॥ १॥ छंद चाल। (१४ मात्रा) सफली मम लोचनद्वंद । देखत तुमको जिनचंद ।।
SR No.010576
Book TitleVruhhajain Vani Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAjitvirya Shastri
PublisherSharda Pustakalaya Calcutta
Publication Year1936
Total Pages410
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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