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________________ *-*- - * वृहज्जैनवाणीसंग्रह ३५ ॥ .. ... .. .t दोहा-अगनिमांहि परिमलदहन, चंदनादि गुण लीन। जासों पूर्जू परमपद, देवशास्त्र गुरु तीन ॥ ओं हों देवशास्त्रगुरुभ्योऽष्टकर्मदहनाय धूपं निर्वपामीति स्वाहा। ३०-दौलतरामकृत स्तुति। * दोहा-सकल ज्ञेय ज्ञायक तदपि, निजानन्दरसलीन । ___सो जिनेन्द्र जयवंत नित, अरिरज रहसविहीन ॥ . ऐ जय वीतराग विज्ञानपूर । जय मोहतिमिरको हरनसर ॥ जय ज्ञान अनन्तानन्तधार । ग सुख बीरजमण्डित अपार * ॥१॥ जय परमशांति मुद्रा समेत । मविजनको निज अनु भूति हेत । भविभागनवसजोगेवशाय । तुमधुनि है सुनि विभ्रम नसाय ॥३॥ तुम गुण चितत निजपरविवेक । प्रगटै । विघटै आपद अनेक ।। तुम जगभूषण दूषणवियुक्त । सब महिमायुक्त विकल्पमुक्त ॥४॥ अविरुद्ध शुद्ध चेतनस्वरूप । * परमात्म परम पावन अनूप।। शुभअशुभविभाव अभाव कीन स्वाभाविकपरिणतिमयअछीन ॥ ५॥ अष्टादशदोषविमुक्त धीर । सुचतुष्टयमय राजत गभीर ।। मुनिगणघरादि सेवत * महंत । नवकेवललब्धिरमा धरंत ॥ ६॥ तुम शासन सेय । अमेय जीव । शिव गए जाहिं जैहैं सदीव । भवसागरमै * दुख छार वारि। तारनको अवरन आप टारि ॥७॥ यह लखि निज दुखगदहरणकाज । तुमही निमित्तकारण इलाज, जाने तातें मैं शरण आय । उचरों निज दुख जो चिर लहाय *HA RT-5 *
SR No.010576
Book TitleVruhhajain Vani Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAjitvirya Shastri
PublisherSharda Pustakalaya Calcutta
Publication Year1936
Total Pages410
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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