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________________ * SATIK K * wwwuuuuuuuuuurvivvvvvvvvv ___ वृहज्जैनवाणीसंग्रह ३७७ ४ एकविध ५ क्षिप्र ६ अक्षिा ७ निःसृत ८ अनिःसृत ९ । उक्त १० अनुक्त ११ ध्रुव १२ अध्रुव । यह पदार्थ व्यक्त रूप हैं जिसे अर्थावग्रह कहते हैं और यही पदार्थ अव्यक्तरूप हैं जिसे व्यंजनावग्रह कहते हैं। अर्थावग्रहका ज्ञान पांचों इन्द्री और छठे मनसे होता है। व्यंजनावग्रहका ज्ञान मन और नेत्रके सिवा चारों इन्द्रीसे होता है इसकारण, । अर्थावग्रहके भेद = ४x१२x६ = २८८ और व्यंजनावग्रहके भेद १४१२४१=४८ इसप्रकार २८८+४८-३३६ कुल भेद हैं। २१२-मोक्षशास्त्रम्। (आचार्य श्रीमदुमास्वामिविरचितम्) । मोक्षमार्गस्य नेतारं भेत्तारं कर्मभूमृताम् ।। ज्ञातारं विश्वतत्त्वानां बन्दे तद्गुणलब्धे ॥ ___ सम्यग्दर्शनज्ञानचरित्राणि मोक्षमार्गः ।।१॥ तत्त्वार्थश्रद्धानं सम्यग्दर्शनम् ।।२।। तन्निसर्गादधिगमाद्वा ॥३॥ जीवाजीवाश्बन्धसंवरनिर्जरामोक्षास्तत्त्वम् ॥४॥ नामस्थापनाद्रव्यभारतस्तन्न्यासः ॥५॥ प्रमाणनयैरधिगमः ॥६॥ निर्देश स्वामित्वसाधनाऽधिकरणस्थितिविधानतः ॥७॥ सत्संख्या। क्षेत्रस्पर्शनकालान्तरमावाल्पबहुत्वैश्च ॥ ८॥ मतिश्रुताव धिमनःपर्ययकेवलानि ज्ञानम् ॥९॥ तत्प्रमाणे ॥१०॥ आधे । * परोक्षम् ॥११॥ प्रत्यक्षमन्यन् ॥१२॥ मतिः स्मृतिः संज्ञा चिन्ताऽमिनिबोध इत्यनान्तरम् ॥१३ । तदिद्रियानिन्द्रियनिमित्तम् ।।१९।। अवग्रहेहाऽवायधारणाः ॥१५॥ बहुबहु-1 2 * 5 * -*
SR No.010576
Book TitleVruhhajain Vani Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAjitvirya Shastri
PublisherSharda Pustakalaya Calcutta
Publication Year1936
Total Pages410
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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