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________________ * सर-5759 - * AMAnnnnnnnnnnr rrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrr. ३५२ वृहज्जैनवाणीसंग्रह * ओं ही श्रीपावापुरसिद्धक्षेत्र ! अन्न मम सन्निहितो भव भव । वषट् । अथ अष्टक । गीताछंद। है शुचि सलिल शीतौ कलिलरीतौ श्रमन चीतो लै जिसो ॥ । भर कनक झारी त्रिगद हारी दै त्रिधारी जितपो ॥ वर पनवन भर पसरवर बहिर पावाग्राह ही । शिवधाम * सन्मत स्वामि पायो, जजों सो सुखदा मही ॥१॥ ओं ह्रीं श्रीपावापुतुरसिद्धक्षेत्रेभ्यो वीरनाथजिनेन्द्रस्य जन्मजरामृत्यु* विनाशनाय जलं निर्वपामीति स्वाहा। भव भ्रमन भ्रमत अशर्म तपकी, तपन कर तपताइयो। तसु बलयकंदन मलय-चंदन, उदक संग घिस ल्याइयो । * वरपा० चिंदनं०॥ तंदुल नवीन अखंड लीने, ले महीने में । ऊजरे। मणिकुंद इंदु तुपार घुति-जित, कनरकाबीमें धरे॥ वर० ॥ अक्षतान् ।। मकरंदलोभन सुमन शोभन सुरमि । चोमन लेय जी । मद समर हरवर अमर तरुके, मान-हग हरखेय जी वरपद्मापुष्पं०॥ नैवेद्य पावन छुध मिटावन । सेव्य भावन युत किया । रस मिष्ट पूरति इष्ट सूरति लेयकर प्रभु हित हिया वरपद्म०॥ नैवेद्य० ॥ तमअज्ञनाशक स्वपरभाशक ज्ञेय परकाशक सही। हिमपात्रमें धर मौल्यविन वर द्योतघर मणि दीपही वर०ा दीपं ॥ आमोदकारी। वस्तुसारी विध दुचारी-जारनी। तसु तूप कर कर धूप ले । दश दिश-सुरमि-विस्तारनी ॥ वर० ॥धूप।। कल भक्क पक्क * सुचक्य सोहन, सुक्क जनमन मोहने । वर सुरस पूरित त्वरित * -- - - - -- *
SR No.010576
Book TitleVruhhajain Vani Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAjitvirya Shastri
PublisherSharda Pustakalaya Calcutta
Publication Year1936
Total Pages410
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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