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________________ वृहज्जैनवाणीसंग्रह www.wuuuuuÿÿÿÿÿÿÿÿwww An ३५१ wwwwwUL विहार ||५|| है अनंत चतुष्टय युक्त वाम । पायो सब I सुखद सयोग ठाम || तहं कालं त्रिगोचर सर्व ज्ञेय । युगपत 'हि समय इक महि लखेय ॥ ६ ॥ कछु काले दुविध वृष अमिय दृष्टि | कर पोषे भविविधान्यसृष्टि ॥ इंक मास J आयु अवशेष जान | जिन योगनकी सुप्रवृत्ति हानं ॥७ ताही थल तृतिशितध्यान ध्याय । चतुदशमथानं निवसे जिनाय || तहँ दुचरम समयमझार ईश । प्रकृति जु बहत्तर तिनहि पीश || ८ || तेरह नठ चरम समयमझार | करके श्रीजंगतेश्वर प्रहार || अष्टमि अवनी इक समयमद्ध । निवसे पाकर निज अचल रिद्ध || ९ || युत गुण वसु प्रमुख अमित गणेश | है रहे सदा ही इमहि वेश ॥ तबहीतें सो थानक पवित्र । त्रैलोक्यपूज्य गायो विचित्र ॥ १० ॥ मैं तसु रज निज मस्तक लगाय | बंद पुन पुन भुवि शीश नाय || ताही पद बांछा उरमझार | घर अन्य चाहबुद्धी विचार || दोहा - श्री चंपापुर जो पुरुष, पूजै मन वच काय । वर्णि "दौल" सो पाय ही, सुख सम्पति अधिकाय | : इत्याशीर्वादः । ./. १२६ - श्री पावापुर· सिद्धक्षेत्र - पूजा | जिहिं पावापुर छित अघति, हत सनमति जगदीश । 'भये सिद्ध शुभथान सो, जजों नाय निज शीश ॥.. मों ह्रीं श्रीपावापुरसिद्धक्षेत्र ! मत्र अवंतर अवतर । संवैौषट् । ओं ह्रीं श्रीपावापुरसिद्धक्षेत्र ! अत्र तिष्ठ तिष्ठ | ॐ ॐः ! L
SR No.010576
Book TitleVruhhajain Vani Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAjitvirya Shastri
PublisherSharda Pustakalaya Calcutta
Publication Year1936
Total Pages410
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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