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________________ वृहज्जैनवाणीसंग्रह ३३३ जहते मुनेंद्र || तिनकों करजोरि करौं प्रणाम । जिनको पूजों तजि सकल काम || महार्घ ॥ ^^ AA AAAA AAA अडिल्ल - जे नर परम सुभावनतें पूजा करें। हरि हलि चक्री होंय राज छह खंड करें | फेरि होंय धरणेंद्र इंद्रपदवीधरैं । नानाविध सुखभोगि बहुरि शिवतिय धेरै ॥ इत्याशीर्वादः (पुष्पांजलिंक्षिपेत् ) छंद जोगीरासा श्रीसम्मेद शिखरगिरि उन्नत, शोभा अधिक प्रमानों । विंशति तिहिपर कूट मनोहर, अदभुत रचना जानो || श्रीतीर्थकर बीस तहांत, शिवपुर पहुंचे जाई । तिनके पदपंकजजुग, पूजौं, अर्ध प्रत्येक चढाई ॥ पुष्पांजलिं क्षिपेत् ॥ नं० २४ अजितनाथ सिद्धवर कूट । प्रथम सिद्धिवरकूट सुजानो, आनंद मंगलदाई | अजितनाथ जहतैं शिव पहुंचे पूजों मनचचकाई || कोडि जु अस्सी एक अरब मुनि, चौवन लाख जु गाई । कर्म काटि निर्वाण पधारे, तिनकों अर्घ चढाई ||२|| ओं ह्रीं श्रसम्मेदशिखरसिद्धक्षेत्रसिद्धवरकूटते, अजितनाथ जिनेंद्रादि मुनि एक अर्ब असीकोटि चौवनलाख सिद्धपदप्राप्तेभ्यः सिद्धक्षेत्रे ० अर्घ नं० १४ संभवनाथ धवलकूट । धवलदत है कूट दूसरो, सब जियको सुखकारी । श्रीसंभव मुक्ति पधारे पापतिमिर को टारी ॥ धवलदत्त दे आदि सुनी, नवकोडाकोडी जानो । लाख बहत्तरि सहस वियालिस, पंचशतक ऋषि मानो || कर्मनाशकरि शिवपुर
SR No.010576
Book TitleVruhhajain Vani Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAjitvirya Shastri
PublisherSharda Pustakalaya Calcutta
Publication Year1936
Total Pages410
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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