SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 259
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ * - MS-R ay ३३२ वृहज्जैनवाणोसंग्रह - ओं ही सम्मेदशिखरसिद्धक्षेत्र ! अन्न अवतर अवतर । संवौषट् । ओं ही सम्मेदशिखरसिद्धक्षेत्र ! अत्र तिष्ठ तिष्ठ । ठः ठः । *ओं ह्रीं सम्मेदशिखरसिद्धक्षेत्र ! अत्र मम सन्निहितो भव भव । वषट् । अष्टक * अडिल्ल-क्षीरोदधिसम नीर सुनिरमल लीजिये। कनक * कलसमें भरकै धारा दीजिये ॥ पूजौं शिखरसमेद सुमनवच* काय जी । नरकादिक दुख टरें अचलपद पायजी ॥ *ओं हों विशतितीर्थकराद्यसंख्यातमुनिसिद्धपदप्राप्तेभ्यो सम्मेदशिखर। सिद्धक्षेत्रभ्यो जन्मजरामृत्युविनाशनाय जलं निर्वपामीति स्वाहा ॥१॥ * पयसों घसि मलयागिरिचंदन लाइये । केसरि आदि कपूर । सुगंध मिलाइये ॥ पू० । चंदनं ॥२॥ तंदुल धवल सुवासित । * उज्वल घोयकै । हेमरतनके थार भरों शुचि होयक।। पूजौं०॥ अक्षतान् ॥३॥ सुरतरुके सम पुष्प अनूपम लीजिये। कामदाहदुखहरणचरण प्रभु दीजिये । पूजौं० ॥ पुष्पं ॥४॥ कनकथार नैवेद्य सु षटरसतै भरे। देखत क्षुधा पलाय । सुजिन आण धरे ।। पूजौं० ॥ नैवेद्यं ॥५॥ लेकर मणिमय । दीप सुज्योति प्रकाश है । पूजत होत सुज्ञान मोहतम नाश * है ॥ पूजौशिखरसमेद० ॥ नरका० दीपं ॥६॥ दशविध धूप। * अनूप अगनिमैं खेवहूं । अष्टकर्मको नाश होत सुख लेवहूं ॥ पूजौं० ॥ फलं ॥ ८॥ जल गंधाक्षतपुष्प सुनेवज लीजिये।। * दीप धूप फल लेकर अर्थ सु दीजिये। पूजौं० ॥ अयं ॥९॥ • पद्धरि छंद-श्रीविंशति तीर्थंकर जिनेंद्र । अरु असंख्यात ।
SR No.010576
Book TitleVruhhajain Vani Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAjitvirya Shastri
PublisherSharda Pustakalaya Calcutta
Publication Year1936
Total Pages410
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy