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________________ *KRAKARSANKRAK Vivvvvwww www. Press वृहज्जैनवाणीसंग्रह २२५ *ओं ह्रीं आचार्योपध्यायसर्वसाधुगुरुभ्यो मोहान्धकारविनाशनाय दीपं०॥ बहु अगर आदि सुगंध खेऊँ, सुगुण पद पद्महि खरे । दुखपुंजकाठ जलाय स्वामी, गुण अछय चितमै धरे ॥ भवभोग०॥ ओं ही आचार्योपाध्यायसर्वसाधुगुरुभ्योऽष्टकर्मदहनाय धूपं नि० ॥७ * भर थार पूग बदाम बहुविध, सुगुरुक्रम आगें धरों। मंगल.. महाफल करो स्वामी, जोर कर विनती करों ॥ भवभोग०॥ *ओं ही आचार्योपाध्यायसर्वसाधुगुरुभ्यो मोक्षफलप्राप्तये फलं नि० ॥८॥ * जल गंध अक्षत फूलनेवज,दीप धूप फलावली । द्यानत सुगु रुपद देहु स्वामी, हमहिं तार उतावली ॥ भवभोग० ॥ ९॥ *ओं ही आचार्योपाध्यायसर्वसाधुगुरुभ्योऽनयंपदप्राप्तये अयं नि० ॥६ अथ जयमाला। दोहा-कनककामिनीविषयवश, दीसै सब संसार । त्यागी। वैरागी महा, साधुसुगुनभंडार ॥ १॥ तीन घाटि नव कोड सब, बंदौं सीस नवाय । गुन तिन अट्ठाईस लों कहूं । * आरती गाय ॥२॥ वेसरी छंद-एक दया पालें मुनिराजा। रागदोष द्वै हरन परं। तीनोंलोक प्रगट सब देखें, चारौं । * आराधन निकरं ।। पंच महाव्रत दुद्धर धारै, छहों दरव जानें । सुहितं । सात मंगवानी मन लावै, पावै आठ रिद्ध उचितं ॥३॥ नवों पदारथ विधिसौं भाई, बंध दशों चूरन करनं । ग्यारह शंकर जानै मान, उत्तम बारह व्रत धरनं ॥ तेरह भेद काठिया चूरै, चौदह गुनथानक लखियं । महाप्रमाद पंचदश * नारौं, सोलकषाय सबै नशियं ।। ४ ।। बंधादिक सत्रह सब
SR No.010576
Book TitleVruhhajain Vani Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAjitvirya Shastri
PublisherSharda Pustakalaya Calcutta
Publication Year1936
Total Pages410
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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