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________________ २६ ] विद्यार्थी जैनधर्मशिक्षा शिष्य-कृपाकर यह बताइये कि सुखशांतिका लाम कैसे हो ! शिक्षक-यह बात हम आपको बहुत अच्छी तरह बताएंगे, आप ध्यान देकर सुनें । यह तो आप भले प्रकार जान चुके हैं कि सुख व शांति ये दोनो आत्माके स्वाभाविक गुण है। जो आत्मा शुद्ध होता है उसको परमात्मा कहते हैं, उसके भीतर तो सर्वे आत्मीक गुण पूर्णपने शुद्धतासे प्रकाशमान होजाते है । हम संसारी आत्माएं अशुद्ध है तथापि हमारी आत्मामे भी ये गुण है। हम किसतरह इन गुणोंका स्वाद लें यही बात समझनेयोग्य है । हम आपसे पूछते है कि आपको मीठी नारंगीका स्वाद कैसे आता है ? शिष्य-जब हम नारगीका गृदा जवानपर रखकर चाखते हैं। तब उसका मीठा स्वाद आता है । शिक्षक-यदि नारंगी खाते वक्त आपका मन व्याकुल हो, कहीं जानेकी आकुलता हो तो आपको स्वाद आयेगा या नहीं ? विष्य-मै समझता हूं कि जब हम स्थिरतासे चाखेंगे तन ही हमको स्वाद आयगा । घबड़ाहटमें स्वाद नहीं आयगा । शिक्षक-आपका कहना ठीक है। असल बात यह है कि स्वादको जाननेवाला हमारा ज्ञान है जो जीभके द्वारा काम करहा है। जब हमारा ज्ञान बिलकुल उस नारंगीकी ओर एकाग्र होगा अर्थात् उसी तरफ़ जम जायगा तब ही नारंगीका स्वाद आयगा । यदि डावांडोल ज्ञान होगा-उस नारंगीके स्वाद जाननेमें थिर न होगा तो कभी भी उसका स्वाद न आयगा । इसी दृष्टांतसे आपको मालूम हो कि जब सुख शाति अपने आत्मामें है तब अपनी आत्माकी ओर एकाग्र होकर स्थिर होनेसे अर्थात् आत्मामें जानको
SR No.010574
Book TitleVidyarthi Jain Dharm Shiksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShitalprasad
PublisherShitalprasad
Publication Year
Total Pages317
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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