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________________ १६] विद्यार्थी जैन धर्म शिक्षा। आत्माके सुख गुणको ढक रक्खा था । जितना अंग आपका मोह हटा था उतना अंग उन अतरंगके सच्चे सुखका कुछ स्वाद आपको आगया। यदि आत्मामे सुख गण नहीं होता तो कभी भी परोपकार करते हुए सुख नहीं भासता। यदि कोई एक क्षणके लिये बिलकुल मोह छोड दे और आत्माकी ओर प्रेमी होजावे तो वह यह अनुभव करेगा कि वह परम सुखी है। इसलिये आपको यह निश्चय करना चाहिये कि आत्माका एक गुण आनन्द है।। शिष्य-गुरूजी | आज तो आपने मुझे बडी ही कामकी बात बता दी, मै तो बहुत अंधेरेमे था। मै विषयभागको ही सुख जानता था। आज मैने निश्चय करलिया और खूब समझ लिया कि सच्चा सुख मेरे आत्माका स्वभाव है । इन्द्रिय सुख अतृप्तिकारी है व चाहकी दाहको बढानेवाला है। वास्तवमे द खकी कुछ कमीको ही इन्द्रिय सुख कहते है। शिक्षक-इसी तरह यः आत्मा अमूर्तीक है. इसमे जड Matt..के गुण जो स्पर्श, रस, गंध, वर्ण है मो नहीं है इसीसे हम आत्माको हाथोसे छूका, जवानसे चाखकर नाकसे लंबकर व आखये देखकर नहीं जान सक्ते है। वह जड परमाणुओंमे बना नहीं है वह तो एक अखड अग पदार्थ है इसीसे वह अमूतीक imust.hul है। शिष्य-इस आत्माका कुछ आकार है या नहीं। शिक्षक-हरएक वस्तु जो इस जगतमे है कुछ न कुछ आकाशको घेरती है, क्योकि आकाश सबका आधार है। जैसे कोई कहे कि घड़ी कहा है ? जवाब मिलेगा वहा है। फिर वह पूछे कि
SR No.010574
Book TitleVidyarthi Jain Dharm Shiksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShitalprasad
PublisherShitalprasad
Publication Year
Total Pages317
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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