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________________ भगवद्गीता और जैनधर्म। [२४९ नहीं लिपते है। इस तरह जो आत्माको जानता है वह कर्मोंसे नहीं बंधता है। यहच्छालोभसंतुष्टो द्वन्द्वातीतो विमत्सरः। समः सिद्धावसिद्धौ च कृत्वाऽपि न निवद्धयते ॥२२-४॥ भा०-अपने आप जो कुछ प्राप्त हो उसमें ही संतुष्ट रहनेवाला हर्ष शोक द्वन्दसे रहित, ईरहित, सिद्धि व असिद्धि में समभाव रखनेवाला पुरुप कर्मोको करके भी नहीं बंधता है। यथैधांसि समिद्धोऽग्निर्भस्मसात् कुरुतेऽर्जुन । ज्ञानाग्निः सर्वकर्माणि भस्मसात् कुरुते तथा ॥३७-४॥ भा०-हे अर्जुन ! जैसे जलती हुई आग ईन्धनको भस्म कर देती है, वैसे ही आत्मज्ञानकी अमि सर्व कर्मोको भस्म कर देती है। श्रद्धावांल्लभते ज्ञानं तत्परः संयतेन्द्रियः । ज्ञानं लब्ध्वा परां शांतिमाचिरेणाधिगच्छति ।३९४।। भा०-श्रद्धावान आत्मज्ञानको पाता है। आत्मज्ञानमें लीन इन्द्रियोंको संयममें रखता है फिर वही पूर्ण ज्ञानको पाकर परमशांतिको शीघ्र ही पालेता है। उद्धरेदात्मनाऽऽत्मानं नात्मानमवसादयेत् । आत्मैव ह्यात्मनो बन्धुरात्मैव रिपुरात्मनः ।। ५-६ ॥ भा०-अपने आत्माका उद्धार अपनेसे करे, अपने आत्माको दुःखित न रक्खे, आत्मा ही आत्माका मित्र है तथा आत्मा ही अपना शत्रु है। योगी युञ्जीत सततमात्मानं रहसि स्थितः । एकाकी यतचित्तात्मा निराशीरपरिग्रहः ॥ १०-६ ॥
SR No.010574
Book TitleVidyarthi Jain Dharm Shiksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShitalprasad
PublisherShitalprasad
Publication Year
Total Pages317
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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