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________________ २४८] विद्यार्थी जैन धर्म शिक्षा। दिया है वही मुनि स्थिरबुद्धि कहलाता है। जो सर्वसे स्नेह छोडकर अच्छी बुरी वस्तुआको प्राप्त करके न प्रसन्न होता है, न टेप करता है, उसीके भीतर प्रज्ञा अर्थात् भेदबुद्धि (भेदविज्ञान) स्थिर है। जैसे कछुआ अपने अंगोंको सब ओरसे समेट लेता है, उनी तरह जो अपनी इन्द्रियोंको इन्द्रियों के विषयोंमे समेट लेता है उसीकी प्रजा स्थिर है ! या निशा सर्वभूतानां तस्यां जागति संयमी । यस्यां जाग्रति भूतानि सा निगा पश्यतो मुनेः ॥६९।। भा०-जो सर्व प्राणियोंको रात्रि है उसमे संयमी जागता है अर्थात् शुद्ध आत्मज्ञानमे मग्न रहता है। जिस क्षणिक विषयसुखमे प्राणी जागते हैं उसमे मुनि रात्रिको ही देखते है। विहाय कामान्यः सर्वान् पुमांश्चरति नि:स्पृहः । निर्ममो निरहंकारः स शांतिमधिगन्छति ॥ ७१-२॥ भा०-जो पुरुष सर्व कामनाओंको त्यागकर इच्छारहित, ममतारहित, अहंकार रहित आचरण करता है वही गातिका दाता है। तस्मादसक्तः सततं कार्य कर्म समाचर । असक्तो ह्याचरन् कर्म परमाप्नोति पूरुषः ॥१९-३॥ भा०-इसलिये अनासक्त होकर तृ निरंतर कर्तव्यकमको कर क्योंकि जो अनासक्त हो कर्म करता है वह पुरुष परमात्मा पठको पाता है। न मा कर्माणि लिम्पन्ति न मे कर्मफले स्पृहा । इति मां योऽभिजानाति कर्मभिर्न स बद्धयते ॥१४-४॥ भा०-मुझे कर्मोंके फलकी इच्छा नहीं है इसलिये मुझे कर्म
SR No.010574
Book TitleVidyarthi Jain Dharm Shiksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShitalprasad
PublisherShitalprasad
Publication Year
Total Pages317
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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