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________________ २३०] विद्यार्थी जैनधर्म शिक्षा । यायके पढनसे विदित होगा कि सर्व पृथ्वी आदि पदार्थोसे 3 क्षणिक ज्ञान, सुख आदिसे रहित जो है उसीपर लक्ष्य दिलाया है। उसके कुछ वाक्य है ____ “अरियधम्मस्स अकोविदो पथवी पथवितो संजानाति . ___ पथवि मे ति मण्णति अपरिज्ञात तस्स योपि सो अरहं खीण सवो चुसितवा कतकरणीयो सम्मढअज्ञाविमुत्तो पथवि मेति न मण्णति ।" भावार्थ-जो आर्यधर्मको नहीं जानता है वह पृवीको पृथ्वी जानता है । पृथ्वीको अपनी मान लेता है, क्योंकि उसको ज्ञान नहीं है । जो कोई अर्हन् क्षीण आम्रव है, ब्रह्मचारी है, कृतकृत्य है. सम्यक्ज्ञानी है, वैरागी है, वह पृथ्वी आदि मेरी है ऐसा नहीं मानता है। _संयुक्तनिकाय (चुंदो १३) मे ये पाली वाक्य हैतस्मादिह आनंद अत्तढीपा विहरथ अत्तसरणा। अनण्णसरणा धम्मदीपा धम्मसरणा अनण्णसरणा॥ भा०-इसलिये हे आनन्द ! आत्मारूपी दीपमे विहार कर. आत्मा ही शरण है, दूसरा कोई शरण नहीं है। धर्म ही द्वीप है। धर्म ही शरण है । अन्य कोई शरण नहीं है। वुद्ध पाली साहित्यमे स्पष्ट आत्माका वर्णन करके सर्व संस्कारोंको अनित्य वताकर व निर्वाणको अजात, अजर, अमर बताकर मिद्ध कर दिया है कि जो निर्वाणरूप है वही आत्मा है। ऐसा ही जैन सिद्धात मानता है कि आत्मा व निर्वाण एक अनुभवगोचर पदार्थ है, आत्मा निर्विकल्प है।
SR No.010574
Book TitleVidyarthi Jain Dharm Shiksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShitalprasad
PublisherShitalprasad
Publication Year
Total Pages317
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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