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________________ २२८ ] विद्यार्थी जैन धर्म शिक्षा। अपनी ३५ वर्षकी आयुमे मध्यम मार्गका उपदेश सबसे पहले बनारस सारनाथ पर दिया, जहा श्री श्रेयासनाथ ग्यारहवें जैन तीर्थकरकी जन्मभूमि है । बुद्धके अंतरंगमें जैन तत्वज्ञान भरा था उसीको वे स्वयं पालते थे व उसीका उपदेश उन्होने इतनी सुगम रीतिसे दिया कि जनताने सुगम समझकर शीघ्र ग्रहण कर लिया । और बहुमतका प्रचार भारतमे व विदेशोंमे बहुत अधिक फैल गया। आज इस मतके माननेवाले ४० या ५० करोड इस जानी हुई दुनियामे होंगे। इनके सबसे पुराने ग्रंथ पाली भाषाके हे जो प्रथम शताब्दीमे सीलोनमें लिखे गए थे। उनसे जो बौद्ध धर्म झलकता है उसका तत्वज्ञान जैन तत्वज्ञानसे मिलता है। (१) मोक्षका स्वरूपमज्झिम निकाय अरिय परिएसन सुत्त २६ में वाक्य है - " निव्वानं परि येसमानं अजातं अनुत्तरं योगक्खेमं निन्वानं अज्झगमं । अजरं अव्याघि अमतं असोकं असकिएं । अधिगमो खो मे अयं धम्मो गंभीरो दुद्दसो, दुरनुवोधो, संतो, पणीतो अतक्कावचरो निपुणो पंडितवेदनीयो ।" भावार्थ-जो निर्वाण खोजनेयोग्य है वह किसीसे उत्पन्न नहीं है अजन्मा है अर्थात् स्वाभाविक है, उससे बढ़कर कोई नहीं है इसलिये अनुत्तर है, योग अर्थात् ध्यानद्वारा अनुभव गम्य है इसलिये योगक्षेम है, जरारहित है, व्याधिरहित है, मरणरहित है, शोकरहित है, क्लेशरहित है । मैंने वास्तवमे इस धर्मको जान लिया । यह धर्म गंभीर है, कठिनतासे जानने योग्य है, शांत है, उत्तम है, तर्कके गोचर नहीं है, निपुण है तथा पंडितोंके द्वारा अनुभव करने योग्य है।
SR No.010574
Book TitleVidyarthi Jain Dharm Shiksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShitalprasad
PublisherShitalprasad
Publication Year
Total Pages317
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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