SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 193
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ संवर, निर्जरा और मोक्ष। [१७३ एक शब्दके द्वारा किसी एक ध्येय पदार्थपर उपयोगका रुक जाना। (३) सूक्ष्मक्रिया प्रतिपाति-जब काययोग बहुत सूक्ष्मतामे चलता है। जब यह तीसरा शुक्लध्यान होता है। (४) न्युपुरत क्रियानिवर्ति-इस चौये शुक्लध्यानमें योगोंका हलनचलन बन्द है। इसका काल इतना कम है जितनी देरमे अ.. इ, उ, ऋ, ल इन पांच लघु अक्षरोंका उच्चारण किया जासके। बस इस शुक्लध्यानके प्रतापसे यह जीव सर्व कर्मोसे व शरीरसे छूटकर मुक्त व सिद्ध होजाता है। मोक्षतत्व-जब आस्रवके कारणभाव मिथ्यात्व, अविरत, प्रमाद, कपाय तथा योग धीरे धीरे मिट जाते हैं तब सयोगकेवली गुणस्थान तक कर्मोका आना होता है। अयोग गुणस्थानमें कर्म नहीं आते है। उधर शुक्लध्यानके प्रतापसे कौकी निर्जरा होती जाती है, बस यह आत्मा परम शुद्ध होकर मुक्त होजाता है तब इसको सिद्ध कहते है। सिद्ध भगवानके आत्माका आकार अंतिम शरीरके प्रमाण ध्यानाकार रहता है। नख, केशोंमें आत्माके प्रदेश नहीं हैं, इतना ही आकार सिद्ध अघस्थामें कम होजाता है। जैसे अग्निकी लौ ऊपरको जाती है वैसे सिद्धका आत्मा ऊपरको लोकके अंततक चला जाता है । आगे धर्मास्तिकाय न रहनेसे वहीं ठहर जाता है । परमात्मा रूप होकर निजानंदको भोगता हुआ अनंत कालतक स्वरूपमम स्थित रहता है। फिर कर्मोंका वन्ध न होनेसे मुक्त जीव पीछे लौटकर नहीं आता है, न कभी अशुद्ध होता है। शिप्य-आपने बहुत कुछ जरूरी कथन कर दिया है। मैं इसपर मनन करूंगा। कृपाकरके श्रावकोंका आचार विशेषरूपसे बता दीजिये।
SR No.010574
Book TitleVidyarthi Jain Dharm Shiksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShitalprasad
PublisherShitalprasad
Publication Year
Total Pages317
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy