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________________ NA आरव और बंध तत्व। [१५३ पांच रस--(९७) तिक्त- तीखा,(९८) कटुक--कडवा, (९९) कपायकषायला, (१००)आम्ल--खट्टा, (१०१) मधुर। दो गंध, (१०२) "सुगंध (१०३) दुर्गंध, वर्ण पांच, (१०४) शुक्ल, (१०५) कृष्ण, .(१०६) नील, (१०७) रक्त, (१०८) पीत । आनुपूर्वी चार--जिससे विग्रह गतिमें पूर्व शरीरके आकार आत्मा रहे, जबतक दूसरे शरीरमें न पहुंचे । ( १०९ ) नरकगत्यानुपूर्वी-नरक गति जाते हुए पूर्वका आकार, ( ११०) तिर्यग्गत्यानुपूर्वी, ( १११) मनुष्यगत्यानुपूर्वी, • (११२) देवगत्यानुपूर्वी, (११३) अगुरुलघु--न बहुत भारी न __ हलका, (११४) उपघात--जिससे अपनेसे अपना घात करे (११५) 'परघात-जिससे परका घात हो, ( ११६ ) आतप--धूप जो परको ताप करे, (११७) उद्योत--प्रकाश, (११८) उच्छ्वास, (११९) प्रशस्त विहायोगति--शुभ चाल, (१२०) अप्रशस्तविहायोगति -अशुभ चाल, (१२१) प्रत्येक शरीर--एक शरीरका एक स्वामी, (१२२) साधारण शरीर- एक शरीरके अनेक “स्वामी, (१२३ ) त्रस-द्वेन्द्रियादि, (१२४ ) स्थावर--एकेन्द्रिय, (१२५) सुभग--परको प्रीतिकारी, (१२६) दुर्भग--परको अप्रीतिकारी, (१२७) सुस्वर (१२८) दुस्वर, (१२९) शुभ- सुन्दर, (१३०) अशुभ--असुन्दर, (१३१) मूक्ष्म--अबाधाकारी, (१३२) __ वादर--बाधाकारी, (१३३) पर्याप्ति -आहारादि पर्याप्ति पूर्ण हो, (१३४) अपर्याप्ति, (१३५) स्थिर, (१३६) अस्थिर, (१३७) आदेय-प्रभावान शरीर, (१३८ ) अनादेय-प्रभारहित शरीर, (१३९) यश कीर्ति, (१४०) अयश कीर्ति, (१४१) तीर्थकर । (७) गोत्रकर्म दो प्रकार--(१४२) उच्चैर्गोत्र-जिससे लोक
SR No.010574
Book TitleVidyarthi Jain Dharm Shiksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShitalprasad
PublisherShitalprasad
Publication Year
Total Pages317
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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