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________________ - १४८] विद्यार्थी जैनधर्म शिक्षा। सरलता-मन, वचन, कायको सरलतासे कपट रहित वर्ताना, (२) अविसम्बाढ-धर्म कार्यसे न रोकना, परस्पर झगडा न करना, (३) धार्मिक प्रेम, (४) संसारसे भय, (५) प्रमाढ न करना । (१२) तीर्थकर नाम कर्मके वन्धके विशेष भाव-पोड़ा कारण भावनाओंका वारवार विचारना । वे सोला भाव नीचे प्रकार है (१) दर्शनविशुद्धि-मोक्षमार्गकी श्रद्धाको विशेप पालना। (२) विनयसंपन्नता-धर्म तथा धर्मात्माओका विनय करना। (३) शीलवतेप्वनतिचार-अहिसादि व्रतोंके पालनमें व क्रोधादि रहित स्वभावमे दोष न लगाना । (४) अभीक्ष्ण ज्ञानोपयोग-शास्त्रके विचारमे व तत्वज्ञानमें नित्य चित्त जोड़ना। (५) संवेग -संसारके दुःखोंसे वैराग्य करना, धर्ममें प्रेम रखना। (६) शक्तितस्त्याग--शक्तिको न छिपाकर आहार, औषधि, अभय व विद्यादान देना। . (७) शक्तितस्तप-शक्तिको न छिपाकर शास्त्रानुसार तप करना। (८) साधु समाधि-साधुओंपर उपसर्ग या कष्ट पडनेपर उसे दूर करना। (९) वैय्यामृत्य-धर्मात्मा व गुणवानोका दु ख या कटके समयमें निर्दोष उपायसे सेवा करके भेट देना। (१०) अर्हत्भक्ति-श्री अरहंत भगवानकी पूजा, भक्ति, स्तुति करना। (११) आचार्य भक्ति-आचार्य गुरुकी शुद्ध भावसे भक्ति करना। (१२) बहुश्रुत भक्ति--उपाध्याय व बहुव्रती साधुकी भक्ति करना।
SR No.010574
Book TitleVidyarthi Jain Dharm Shiksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShitalprasad
PublisherShitalprasad
Publication Year
Total Pages317
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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